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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ही है। यहाँ स्पष्ट ज्ञात होता है की शोणित (स्त्री का रक्त) भी अपने मूल उद्गमस्थान से पृथक् होता है, पुरुष की शुक्र धातु भी झरित होती है, पृथक् होती है। ये दोनों स्त्री की योनि में प्रविष्ट हो तब संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के कारण स्वरूप बताना अभिप्रेत है। इस तरह ये दोनों चीज़, अपने मूलस्थान से खिसक कर अन्यत्र, उत्पत्ति के लिए समुचित ऐसे मनुष्यस्त्रीयोनिस्वरूप स्थान में, पहुँचे हैं। अत एव संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के कारण हैं।
स्त्रीशरीर में मूलस्थान में स्थित शोणित में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती। पुरुषशरीर में स्थित शुक्र में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती। परंतु अपने मूलस्थान से पृथक् ऐसे उन दोनों के संयोग में ही वह बताई है, क्योंकि शुक्र पुरुषदेह से पृथक् हुआ है। तथा शुक्रपुद्गल परिशाट में तो संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति बताई ही है। कथंचित् पूर्वोक्त मनुष्यात्मा स्वरूप प्रतिबंधक की उपस्थिति सिद्ध होने पर भी वह योनिस्थान तो योनिस्थान = मनुष्य का उत्पत्तिस्थान होने से संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति को विशिष्ट रूप में अनुकूल होने के रूप में उत्तेजक बनता है। योनिस्थान = मनुष्यजन्मस्थान तो जीवंत मनुष्य शरीरगत होने पर भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति में प्रतिबंधक नहीं प्रत्युत उत्तेजक ही बनता है - यह बात तो आसानी से समझ में आए वैसी है। अतः, वहाँ संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मानने में कोई बाध नहीं ।
उत्तेजक की बात न्यायशास्त्र के अभ्यासी के लिए अस्पष्ट नहीं है। तथापि थोड़ी अधिक स्पष्टता कर लें :
अग्नि से दाह उत्पन्न होता है। यदि चंद्रकांत मणि का सन्निधान हो तो दाह नहीं होता। फलतः, चंद्रकांत मणि दाह के प्रति प्रतिबंधक साबित होता है। चंद्रकांत मणि हाज़िर होने पर भी यदि सूर्यकांत मणि को भी हाज़िर किया जाए तो दाह होता है। अतः सूर्यकांत मणि को