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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ही संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है । अतः शुक्र और शोणित बहिर्निर्गत अशुचिस्थान के ही वाचक बनते हैं । तथा शुक्र - शोणितसंयोग कथंचित् शरीरअन्तर्गत के रूप में ज्ञात होने से, उसका अतिरिक्त प्रातिस्विक उल्लेख करना आवश्यक है, अन्यथा संमूर्च्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थन के रूप में वह दुर्ज्ञेय है । इति दिक् ।
भगवती सूत्र के दूसरे शतक के पांचवे उद्देशक में मैथुन के समय जो हिंसा बताई है, वह पंचेन्द्रिय जीवों की है । ( यहाँ पंचेन्द्रिय जीव संमूर्च्छिम और गर्भज दोनों प्रकार के संभवित हैं ।) व्याख्याप्रज्ञप्तिवृतिकार का यह कथन इस परिप्रेक्ष्य में विशेष प्रकाशित होगा । इस प्रकरण के विशेष जिज्ञासु तत् तत् ग्रंथों का अवलोकन कर लें । ० संमूर्च्छिम मनुष्य शरीर के बाहर : भगवतीसूत्र
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भगवती सूत्र के पांचवे शतक के आठवें उद्देशक में जीवों की संख्या कितने समय तक अवस्थित रह सकती है ? वह बताया है ।
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वहाँ “संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता" (सू. २२२ ) - इस तरह संमूर्च्छिम मनुष्यों की संख्या उत्कृष्ट से ४८ मुहूर्त्त तक अवस्थित रहती है और गर्भज मनुष्यों की संख्या उत्कृष्ट से २४ मुहूर्त्त तक अवस्थित रहती है – वैसा बताया है ।
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यदि शरीर के भीतर रहे रक्त- मलादि में भी संमूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति निरंतर मानी जाए तो गर्भज मनुष्य की संख्या बढने पर उनके शरीर में भी संमूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होने से संमूर्च्छिम मनुष्य की संख्या में भी बढौती हुई- वैसा रामलालजी महाराज को मानना ही रहा। अतः संमूर्च्छिम मनुष्यों की अवस्थित (= वृद्धि
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