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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य कहलाती हो तो विवृतयोनिकत्व गर्भज मनुष्य के शरीर के बाहर मलमूत्रादि में उत्पन्न होते संमूर्छिम मनुष्यों में संगत होगा या मानवशरीर के भीतर उत्पत्ति मान्य करने वाले पक्ष में ? यह तो एक विचारबीज होने से पेश किया है। विद्वज्जन यहाँ अधिक विमर्श के लिए निमंत्रित हैं।
संक्षेप में, यह बात हमें उस मान्यता की ओर ले जाती है कि : संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति शरीर के बाहर निकली हुई शारीरिक अशुचिओं में ही होती है। • शरीर के भीतर उत्पत्ति मानने में अनिष्ट आपत्ति
मनुष्य शरीर के अंदर सतत संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के अभ्युपगम में यह मान्यता कैसी अनिष्ट कल्पना की ओर ले जाती है उसे भी समझ लें।
संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति एवं नाश अर्थात् जन्म और मृत्यु ढाई द्वीप के अंदर ही माने गए हैं - यह बात तो निर्विवाद है।
कहि णं भंते सम्मूच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति?' पन्नवणा (१/ ९३) में दर्शित इस प्रश्न के जवाब में बताया है कि 'ढाई द्वीप में ही उनका संमूर्छन = जन्म होता है।' (देखिए पृष्ठ-७) इसके द्वारा संमूर्छिम मनुष्यों की संमूर्च्छना = उत्पत्ति ढाई द्वीप में ही शक्य होना बताया गया
अत एव स्थानांग सूत्र (६/३/४९०) में भी संमूर्छिम मनुष्य के त्रिविध प्रकार बताए हैं - (१) कर्मभूमिस्थित, (२) अकर्मभूमिस्थित, (३) अंतरद्वीपस्थित । इन तीनों प्रकार के मनुष्यों के जन्म-मृत्यु जहाँ होते हैं वह मनुष्यक्षेत्र है। मनुष्यक्षेत्र के बाहर ऐसे तीनों प्रकार के, फलतः गर्भज और संमूर्छिम दोनों प्रकार के मनुष्य के जन्म-मृत्यु का निषेध सिद्ध होता है। यह तो सर्वसम्मत आगमिक हकीकत है।