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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य यहाँ श्रीरामलालजी महाराज को हमारा प्रश्न है : (१) मनुष्यक्षेत्र के बाहर संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति और मृत्यु नहीं होती, किंतु क्या उनका अस्तित्व होता है ? जैसे गर्भज मनुष्य नंदीश्वरादि तीर्थों की यात्रार्थ जाते हैं क्या उस तरह संमूर्छिम मनुष्य का अस्तित्व ढाई द्वीप के बाहर मान्य है ? (२) या फिर ढाई द्वीप के बाहर संमूर्छिम मनुष्य का अस्तित्वमात्र असंभवित है - ऐसी आपकी मान्यता है?
प्रथम विकल्प तो उचित नहीं, क्योंकि ढाई द्वीप के बाहर यदि संमूर्छिम मनुष्य का स्वीकार गर्भज मनुष्य की माफिक किया जाए तो उसका मतलब यह हुआ कि विद्याचारण वगैरह लब्धिधारी महात्मा, देवकृत सहायसंपन्न या शक्तिसंपन्न विद्याधरादि श्रावक जब ढाई द्वीप के बाहर शाश्वत प्रतिमाओं के वंदन के लिए = चैत्यदर्शनार्थ जाएंगे तब भी उनके शरीर में संमूर्छिम मनुष्य तो होंगे ही, क्योंकि शरीर के अंदर रहे हुए मल-मूत्रादि में भी आपने संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति तो स्वीकृत की है। एवं प्रस्तुत प्रथम विकल्प के अनुसार ढाई द्वीप के बाहर भी संमूर्छिम मनुष्य का अस्तित्व स्वीकार किया है।
यहाँ तकलीफ तो इस बात की होगी कि जो संमूर्छिम मनुष्य ढाई द्वीप के बाहर गए हैं उन संमूर्छिम मनुष्यों की मृत्यु = विनाश ढाई द्वीप के बाहर तो शक्य नहीं, क्योंकि ढाई द्वीप के बाहर सर्व प्रकार के मनुष्य के जन्म एवं मृत्यु आगम में निषिद्ध ही हैं। यह बात तो हम प्रमाणपुरस्सर पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। ढाई द्वीप के बाहर गए हुए मुनि या अन्य मनुष्य अंतर्मुहूर्त में ही ढाई द्वीप के अंदर पुनः लौट ही जाए-वैसा नियम तो है नहीं। सहज बात है कि भक्ति के लिए गए उनको वहाँ चार-पाँच घंटे तो लगेंगे ही। इस समय दौरान संमूर्छिम मनुष्य की विपत्ति = मृत्यु अशक्य होने से चार-पाँच घंटों तक का उनका आयुष्य मानने की आपत्ति खड़ी होगी। यह बात तो किसी भी
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