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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य लिए हो सकता है। अगर कभी ऐसा हो जाए तो वह भिक्षु मलसूत्र आदि से लिप्त शरीर को सचित्त पृथ्वी स्निग्ध पृथ्वी से, सचित्त चिकनी मिट्टी से, सचित्त शिलाओं से, सचित्त पत्थर या ढेले से या घुन लगे हुए काष्ठ से, जीवयुक्त काष्ठ से एवं अण्डे, प्राणी, जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को न एक बार साफ करे और न अनेक बार घिसकर साफ करे! न एक बार रगड़े या घिसे और न बार- बार घिसे, उबटन आदि की तरह मले नहीं, न ही उबटन की भाँति लगाए। एक बार या अनेक बार धूप में सुखाए नहीं। वह भिक्षु पहले सचित्त रज आदि से रहित तृण, पत्ता, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे। याचनापूर्वक उन्हें प्राप्त करके एकान्त स्थान में जाए। वहाँ अग्नि आदि के संयोग से जलकर जो भूमि अचित्त हो गयी है, उस भूमि का या अन्यत्र उसी प्रकार की भूमि का प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके यतनापूर्वक संयमी साधु स्वयमेव अपने (मल-मूत्रादि लिप्त) शरीर को पोंछे, मले, घिसे यावत् धूप में एक बार व बार बार सुखाए और शुद्ध करे।' (5) १५ स्पष्ट है कि भूमि पर रहा मल-मूत्र तत्काल का ही हो यह जरूरी नहीं है। वह काफी समय पूर्व का भी हो सकता है तथापि आगमकारों ने उसे पोंछने, सुखाने में सम्मूच्छिम मनुष्यों की हिंसा का कोई उल्लेख नहीं किया है अपितु पोंछने, सुखाने का निर्देश दिया है। प्रसंगत: यह भी स्मर्तव्य है कि श्री दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन की सातवीं गाथा में बताया है कि कभी साधु का शरीर वर्षा आदि के पानी से गीला हो जाए तो साधु अपने शरीर को न पोंछे, न मले और न स्पर्श ही करे। 131 श्री दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है :'किसी आवश्यक कार्य के लिए बाहर गये हुए मुनि का शरीर यदि कभी बरसात पड़ने से भीग जाये तो अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए मुनि अपने शरीर को न तो वस्त्रादि से पोंछे और न अपने हाथों से देह को मले, किन्तु अपने शरीर को जल से भीगा हुआ देख कर साधु अपने शरीर का संघट्टा - स्पर्श भी न करे।" २६ जैसे सचित्त जल का स्पर्श करने, उसे पोंछने में जीव हिंसा होती है, वैसे ही मूत्र को पोंछने, स्पर्श करने से सम्मूच्छिम मनुष्यों की हिंसा होती तो शास्त्रकार उसके पोंछने आदि का विधान कैसे कर सकते थे ? इससे भी सुस्पष्ट है कि सम्मूच्छिम मनुष्यों की कायिक विराधना नहीं होती, ऐसा ही आगमकारों का स्पष्ट अभिमत है। (B-4) इसी दृष्टिकोण से श्री निशीथ सूत्र की भाष्य चूर्णि में कहा है- 'मुनि वर्षाकाल में उच्चार प्रस्रवण के लिए तीनतीन पात्र ग्रहण करें। इसका कारण यह है कि वर्षा के होने पर अष्काय के संयम हेतु एक मात्रक के भर जाने पर दूसरा, फिर तीसरा- इस प्रकार उपयोग करते हैं।" (111 इस पाठ से भी संयमार्थ प्रस्रवण आदि को रखने का ( 9 ) से भिक्खु वा [भिक्खुणी वा] जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जयं गच्छेज्जा । | केवली बूया आयाणमेतं । से तत्थ परक्रममाणे पथलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा तत्थ से काए उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया। तहप्पगारं कायं णो अनंत रहियाए पुढवीए, जो ससणिद्धाए पुढवीए, णो समरकखाए पुढवीए, णो चित्तमंतए सिलाए, णां चित्तमंताए लेलए, कोलावासंसि वा दारुए जीवपतिट्ठिते सअंडे मपाणे जाव संताणए णो (?) आमज्जेज्ज वा णो (?) पमज्जेज्ज वा, संलिहेज्ज वा, गिल्लिहेज्ज वा उब्वलेज्ज वा उत्वज्ज वा आतावेज्ज वा पयावेज्ज वा । से पुव्वामेव अप्पससरक्खं तणं वा पत्तं वा कट्टं वा सक्करं वा जाएज्जा, जाइता से त्तमायाए एगतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता ] अहे झामथंडिलंस वा जाव अण्णतरंमि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा । - श्री आचारांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध 2 अध्ययन 1, उद्देशक 5, ( सूत्र 353), संपादक मुनि जम्बूविजय जी । (10) ' उदओल्लं अप्पणी कार्य, नेव पुंछे न संलिहे। समुह तहाभूयं, नो गं संघट्टए मुणी ॥' श्री दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 7, गाथा 7 (11) ' उच्चारपासवणखेलमत्तए तिष्णि तिष्णि गण्हंति संजम आएमट्ठा, भिज्जेज्ज व मेस उज्झति ॥ वरिमाकाले उच्चारमत्तया तिरिण, पासत्रणमत्तया तिणि, तिण्णि खेलमत्तया । एवं णव घेत्तव्वा । इमं कारणं - जं संजमनिमित्तं वरिमते एगम्मि वाहडिते बितिय ततिएसु लज्जं करेति । ' -निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा, 3172 (संपादक- उपा. अमर मुनि व मुनि क हैयालाल जी ) तथा अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग-5, पृष्ठ 247 १५. अशुचि मनुष्य की ही हो वैसी शक्यता अल्प है । (पृ. ७0) मनुष्यसंबंधी हो तो भी शासनमालिन्यादि की रक्षार्थ पोंछना आवश्यक । (पृ. ७१ ) अशुचि से खरंटित पैर को साफ करने की बात संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना की अल्पता के लिए । १२६ (पृ.७२) १६. सचित्त रज का अवलेखन शास्त्रनिर्दिष्ट ही है । (पृ. ७२-७३ ) १७. संमूर्च्छिम मनुष्य + अप्काय की विराधना से बचने के लिए ही बारिश में परिष्ठापन का निषेध । (पृ. ७४) श्लेष्म मल्लक में भस्म भरण की बात + तीन-तीन श्लेष्म मल्लुक रखने की बात से संमूर्च्छिम मनुष्य की कायिक विराधना की शक्यता सिद्ध । (पृ.७४ से ७७)
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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