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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
विधान होता है एवं उससे सम्मूच्छिम मनुष्यों की विराधना नहीं विराधना संभव नहीं है, यह अन्य भी अनेक उल्लेखों से स्पष्ट होती, ऐसा स्पष्ट होता है।
होता है। श्री व्यवहार सूत्र, उद्देशक 7 की भाष्य गाथाओं (B-5) सम्मूछिम मनुष्यों की विराधना हमारी काया से (3204-3207) में बताया है किहोना संभव नहीं है, यह तथ्य विधिमार्गप्रपा नामक ग्रन्थ में 'किसी मुनि के शरीर में घाव हो जाए, उसमें से रक्त, पीव आगत उल्लेख से भी स्पष्ट है। किसी मुनि के कालगत हो जाने आदि बहने लगे तो उसे धोकर एक वस्त्र पर क्षार पदार्थ डाले पर तत्रस्थ मुनियों को क्या-क्या करना चाहिए? इस प्रसंग से तथा उसे व्रण के स्थान पर लगाकर उसके ऊपर एक वस्त्र वहाँ बताया गया है कि -
लगाकर उसे बाँध देवे। यदि उसमें से भी रक्त, पीव आदि 'मुनि मूत्र को नहीं परठ कर मूत्र युक्त पात्र को पास में निकले तो उस पर क्षार डालकर उसके ऊपर दूसरा वस्त्र बाँधे, रखते हैं। यदि शव उठे, अट्टहास करने लगे तो पात्र से मूत्र को उससे भी रक्त, पीव आदि बहने लगे तो तीसरा वस्त्र बाँधे । जैसे बाँयें हाथ में लेकर उस शव पर छिड़कते हैं।' (127
व्रण, घाव में तीन वस्त्रों का विधान है, उसी प्रकार साध्वी के ७ इसमें मूत्र युक्त पात्र को पास में रखने का कहा है। स्पष्ट है ऋतुधर्म के समय रक्त प्रवाह का प्रसंग हो तो एक-एक करके कि मूत्र यक्त पात्र को एक महर्त से भी ज्यादा समय तक रखने सात वस्त्रों को बाँधा जा सकता है। जब-जब वस्त्र पर रक्त की प्राचीन परम्परा थी। ९७
बहकर आ जाए तो अन्य वस्त्र बाँध दें। वस्त्र बन्धन के पश्चात् (B.6) जीव रक्षा के संदर्भ में ओघनिर्यक्ति में कहा गया यदि रक्तादि न दिखे तो वाचना दी जा सकती है एवं रक्तादि है कि - 'यदि किसी मुनि के पेट में कीड़े पड़ जाएँ एवं मल में दिखने लगे तो वाचना नहीं दी जा सकती। कीडे निकले तो उसके लिए विधान है कि वह मनि छाया वाले 'घाव में तीन वस्त्रों के बाद भी एवं ऋत धर्म में सात वस्त्रों स्थान में मल का विसर्जन करें। कदाचित छाया न मिले तो मल के बाद भी यदि रक्त आदि दिखने लगे तो सौ हाथ से अधिक विसर्जन के पश्चात् एक मुहूर्त तक (मल को छाया देता हआ) दूर जाकर, धोकर पुन: वस्त्र प्रयोगपूर्वक वाचना दी जा सकती खड़ा रहे। वे कृमि (कीडे) उतनी देर में स्वत: ही कालधर्म को है।' इसी आशय के भाव श्री निशीथ सत्र की सभाष्यचर्णि प्राप्त हो जाते हैं।'
में बताए हैं। • यदि कृमियों की तरह ही सम्मच्छिम मनुष्यों की कायिक ७ उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि रक्त आदि पर क्षार पदार्थ विराधना संभव होती तो उनकी रक्षा के लिए भी कोई उल्लेख डालने तथा उस पर वस्त्र बाँधना आदि करने पर भी उसमें रहे होता, किन्तु चूँकि सम्मच्छिम मनुष्यों की कायिक विराधना सम्भूच्छिम मनुष्यों की हिंसा नहीं होती। संभव ही नहीं है, अत: उनकी रक्षा के लिए कोई वैसा उल्लेख उपर्युक्त प्रमाण युक्त प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका नहीं किया गया।
है कि शरीर के भीतर विद्यमान मल-मूत्र आदि में भी (B-7) हमारी काया के द्वारा सम्मूच्छिम मनुष्यों की सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति उसी प्रकार संभव है, जैसे कि (12) "काइयमत्तयमपरिछवियं पासे ठविति । जइ उर्दुइ अट्टहासंवा मुंचा तो मत्ताओ काइयं वामहत्थेण गहाय मा उट्टे बुज्झ बुझ गुज्झगा, मा मुज्झ'इइ भणतेहिं सिंचेयव्वं।" - विधिमार्गप्रपा, महापारिद्वावणियाविही, पृष्ठ 78, संपादक-मुनि जिनविजय जो (13) 'संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाण वोसिरह । छायासइ उपहमिवि वोसिरिअ मुहूतयं चिडे' 'ससक्तग्रहणि: ' कृमिसंसक्तोदर इत्यर्थः यद्यसौ साधुर्भवेत् ततो वृक्षच्छायायां निर्गतायां व्युत्सृजति, अथ छाया न भवति ततश्च व्युत्सृज्य मुहूर्तमात्रं तिष्ठेद् येन ने कृमयः स्वयमेव परिणामन्ति। - ओघनियुक्ति वृत्ति सहित, गाथा-527 (14) धोयम्मि य निप्पगले, बंधा तिनेव होति उक्कोसा। परिगलमाणे जयणा दुविहम्मी होइ कायना ॥ 3204 समणो उ वणे व भगंदले व बंधेकका उवाएति। तह वि गलते छार, बोद दो तिन्त्रि बंधा उ॥32051 जाहे तिन्नि विभिन्ना, ताहे हत्थसयबाहिरा धोउं। बंधेउ पुणो विवाए, गंतुं अनत्थ व पढेति ॥ 3206 ॥ एमेव य सभणोणं, वम्मि इयरम्मि सत्त बंधाउ तहविय अठायमाणो धोऊणं अहव अन्नत्थ 1320711'
- गवहार भाष्य, गाथा 32043207./संपादक आचार्य मुनिचन्द्रसूरि जो) । १८. अनन्यगत्या मात्रक में मूत्र रखने का विधान । (पृ. ८२) १९. प्राचीन परंपरा मृतदेह का शीघ्रमेव परिष्ठापन का विधान करती है, कि जो संमूर्छिम मनुष्य की कायिक
विराधना से बचने का उपदेश देती है। (पृ.८१) २०. तथा संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने हेतु कृमि न हो तो उच्चारादि को ताप में परठने की बात
निशीथचूर्णि में दर्शाई ही है। (पृ.८८) २१. घाव वगैरह पर तुरंत क्षार डालने की बात आती है। संमूर्छिम मनुष्य तुरंत तो उत्पन्न नहीं होते, मुहूर्त के
बाद उत्पन्न होते हैं। (पृ. ९१)
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