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________________ ASANGREEOK संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य १४. आचारांग सूत्र का प्रस्तुत पाठ तो | | पश्चात् उस पात्र का स्पर्श एवं उसमें पुनः पुनः मूत्र विभर्जन संमूर्छिम मनुष्य की विराधना सिद्ध | जीव विराधना का कारण नहीं बनता। करता है। (पृ. ६९ से ७४) ®(B-3) इस वास्तविकता का बोध श्री आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के पंचम उद्देशक के इस माध्वियों को रात्रि के समय बाहर न निकलना पड़े एवं वे उस सूत्र से भी होता है, जिसमें बताया है कि अन्य सुगम मार्ग के पात्र में ही पुनः पुनः प्रस्रवण त्याग कर सकें। श्री बृहत्कल्प सूत्र होने पर साधु ऊँचे स्थानों, खाइयों इत्यादि के मार्ग से न जाए, में कहा गया है कि - क्योंकि विषम मार्ग से जाने पर साधु फिमल सकता है। 'निग्रंथियों को अन्दर की ओर लेपयुक्त घटीमात्रक (छोटे फिसलने पर उसका शरीर वहाँ भूमि पर रहे मल-मूत्र, श्लेष्म, घड़े के आकार का पात्र) रखना और उसका उपयोग करना मवाद आदि से लिप्त हो सकता है। तदनन्तर बताया है कि कल्पता है।" कदाचित् उसका शरीर इस प्रकार से लिप्त हो जाए तो वह मुनि इस सूत्र का सम्बन्ध व्यक्त करते हुए भाष्यकार कहते हैं - उसे सचित्त पत्थर आदि से साफ न करे, अपितु सचित्त रज से 'द्वार को दो पर्दो से ढक देने पर रात्रि में मात्रक (भाजन, रहित तृण, पत्र, काष्ठ आदि की याचना करके एकान्त में मलप्रस्रवण पात्र)के बिना कायिकी (प्रस्रवण, मूत्र) के विसर्जन मूत्रादि लिप्त शरीर को पोंछ कर, घिसकर साफ करे एवं धूप हेतु साध्वियों का पुनः पुनः निकलना, प्रवेश करना कष्टकर है, आदि से सुखाए। अत: घटीमात्रक के सूत्र का कथन किया जा रहा है।'' श्री आचारांग सूत्र में कहा गया है कि - 'वह भिक्षु या ___ रात्रि में पात्र में मूत्र विसर्जन हेतु इस प्रकार का प्रयत्न भिक्षुणी गृहस्थ के यहां आहारार्थ जाते समय यह जाने कि सीधे किया जाता था कि मूत्र विसर्जन का शब्द भी नहीं आए। रास्ते के बीच में ऊँचे भू-भाग हैं या खेत की क्यारियाँ हैं या एतत्संबंधी वर्णन करते हुए श्री बृहत्कल्प सूत्र के प्रथम उद्देशक खाइयाँ हैं अथवा बाँस की टाटी है या कोट है, बाहर के द्वार के भाष्य व उसकी वृत्ति में बताया है कि 'प्रस्रवण पात्र पर (बन्द) हैं, आगल है, अर्गला-पाशक है तो उन्हें जानकर दूसरा शरावला (सिकोरा-मिट्टी का बर्तन) स्थापित करें। उसके तल मार्ग हो तो संयमी साधु उसी दूसरे मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से न में छिद्र करे। छिद्र में लम्बा वस्त्र डालकर साध्वियाँ मूत्र जाए, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं - यह कर्मबन्ध का विसर्जन करें ताकि मूत्र विसर्जन की आवाज नहीं आए। फिर कारण है। दो प्रहर तक सोकर रात्रि के अन्तिम प्रहर में उठकर उस उस विषम मार्ग से जाते हुए भिक्षु (का पैर) फिसल मूत्रपात्र का परिष्ठापन करके स्वाध्याय काल देखकर जाएगा या (शरीर) डिग जाएगा अथवा गिर जाएगा। स्वाध्याय की जाती है। फिसलने, डिगने या गिरने पर उस भिक्षु का शरीर मल, मूत्र, इससे व्यक्त होता है कि मूत्र विसर्जन के एक मुहूर्त कफ, श्लेष्म, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र (वीर्य) और रक्त से (6) कप्पइ निग्गंधीणं अंतो लित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा' -बृहत्कल्प सूत्र, उद्देशक 1, सूत्र 16 ( सम्पादक-मुनि पुण्यविजय जी) (7) 'ओहाडियचिलिमिलिए, दक्खं बहसो अइंति निति विय। आरंभो घडिमत्ते......' बृहत्कल्प भाष्य गाथा 2362 (सं. मुनि पुण्यविजय जी) (8) 'कुडमुह डगलेसु व काउ मत्तगं इट्टगाइदुरूढाओ।लाल सराव पलालं, व छोटु मोयं तु मा सदो। 2342॥ 'कुटमुखे' घटकण्ठके डगलेषु वा मात्रकं कृत्वा' स्थापयित्वा तस्य मात्रकस्योपरि 'शरावं' मलकं स्थाप्यते, तस्य च बुध्ने च्छिदं क्रियते, तत्र च्छिद्रे वस्त्रमयी 'लाला' लम्बमाना चौरिका पलालं वा प्रक्षिप्यते, 'मा मोकं व्युत्सजन्तीनां शब्दो भवतु इति कृत्वा। तत उभयपार्श्वत इष्टकाः क्रियन्ते, आदिशब्दात् पीठकादिपरिग्रहः, तत्रारूदाः सत्यो रात्रौं मात्रके मोकं व्युत्सृजन्ति ।। 2342॥ अथ स्वपनयतनामाह-सोऊण दोनि जामे, चरिमे ज्झेत्तु मोयमत्तं तु । कालपडिलेह झातो, ओहाडियचिलिमिली तम्मि।। 2343| सप्चा द्वों'यामौ'प्रहरौ चरमे यामे उत्थाय मोकमात्रकम् 'उन्झित्वा' परिष्ठाप्य ततः कालं-वैरात्रिकं प्राभातिकंच प्रत्यप्रेक्ष्य स्वाध्यायो यतनया क्रियते। बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति सहित, भाष्य गाथा 2342-2343, सम्पादक- मुनि पुण्यविजय जी
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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