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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
सम्मृच्छिम मनुष्य की विराधना का कारण होती तो आगमकार उसमें पुनः पुनः प्रस्रवण का विसर्जन करते रहने पर भी कभी उसे एक मुहूर्त से अधिक समय तक रखकर उसके शास्त्रकारों ने विराधना का कारण नहीं माना है। श्री बृहत्कल्प परिष्ठापन की आज्ञा नहीं देते, किन्तु श्री निशीथ सूत्र के तृतीय सूत्र के प्रथम उद्देशक के सोलहवें सूत्र में साध्वियों को एक
द्देशक के अन्तिम सूत्र में आगमकारों ने स्पष्ट फरमाया है कि विशेष प्रकार का पात्र रखने की अनुज्ञा दी गई है, ताकि रात्र या विकाल में मुनि को मल-मूत्र की बाधा हो जाए और
१२. आत्मविराधना-प्रवचनविराधना से वह किसी पात्र में मल-मूत्र का विसर्जन करके सूर्योदय के पूर्व
बचने हेतु, संयमविराधना होने पर ही उसका परिष्ठापन करे तो वह प्रायश्चित्त का भागी है।
भी, मात्रक में मूत्रादि स्थापित रखने ___ श्री निशीथ सूत्र में कहा गया है कि - 'जो भिक्षु रात्रि में
का विधान है। (प. ४७ से ६९) अथवा विकाल में उच्चार-प्रस्रवण के वेग से बाधित होने पर
मूत्रादि शक्यतः रात को परठ देने अपने पात्र को लेकर या दूसरे मुनि से पात्र की याचना करके
हैं। तथाविध कारणसंयोगवश ही उन्हें उच्चार-प्रस्रवण को करता है एवं उसे सूर्योदय के पूर्व परठता पूरी रात स्थापित रखने का विधान है या परठने वाले का अनुमोदन करता हैं। (वह लघुमासिक
है। (पृ. ४७) प्रायश्चित्त का भागी होता है)
मात्रक में पूरी रात मूत्र स्थापित रखने ___ इस सूत्र की चूर्णि में मात्रक (प्रस्रवण पात्र) में प्रस्रवण का विधान जब कारणिक है तब करने के अनेक कारण बताते हुए लिखा है -
'उसमें कोई भी जीवविराधना नहीं 'इन कारणों से मात्रक में त्याग कर सूर्योदय होने पर होती' - वैसा कैसे कह सकते हैं? याना से बाहर परठते हैं।''
(पृ. ४७-४८) आगे भी लिखा है -
__ अनुद्गत सूर्य = सूर्य के किरण जहाँ 'इन दोषों (चोर के द्वारा पकड़ा जाना, सिंह आदि पशुओं |
न पहुँचे वैसा क्षेत्र - ऐसे अर्थघटन द्वारा खाया जाना, विरोधियों द्वारा चोर, जार आदि का आरोप
को स्वीकारती परंपरा भी प्राचीन लगाया जाना इत्यादि) के कारण सूर्योदय के पूर्व नहीं परठना
है। (पृ. ५८) चाहिए।
१३. बृहत्कल्पसूत्र द्वारा संमूर्छिम मनुष्य ___(B-2) इतना ही नहीं प्रस्रवण (मूत्र) के भाजन में
की विराधना सिद्ध । (पृ. ६२ से विसर्जन के एक मुहूर्त पश्चात् भी उस भाजन को रखे जाने एवं (3) "ज भिक्खू राओ वा वियाने वा उच्चारपासवणेणं उब्वाहि जमाणे सपादं गहाय परपायं वा जाइत्ता उत्चारपासवणं करोति, जो तं अणुगते सरिए एडेति एडतं वा साइजदरा सेवमाणे आवजति मासियं परिहारदाणं उघाइम।"
श्री निशीथ सूत्र, उद्देशक 3, अन्तिम सूत्र ( मनि श्री पुण्यविजय जी कृत प्रेसकांपी) किन्हीं मुद्रित प्रतियों में इस सूत्र के अन्तर्गत 'दिया वा' पाठ भी दिया गया है जो कि अशुद्ध है। इस पाठ की अशुद्धता के विस्तृत वर्णन हेतु परिशिष्ट देखें। (देखें प.217 टिप्पण:- दो-तीन अर्वाचीन हिन्दी-गुजराती व्याख्याकारों ने अणुग्गए मृरिए' का अर्थ जहां सूर्य का प्रकाश न पहुँचे' इस प्रकार किया है, किन्तु वह अर्थ सर्वथा असंगत एवं निराधार है। प्राचीन व्याख्याओं में ऐसा कोई अर्थ नहीं है। (4) एतेहिं कारणेहिं मत्तए वोसिरिर बाहिं जतणाए उदिते सरिए पडि(रि)हति।'
निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा 1548 (मुनि श्री पुण्यविजय जो कृत प्रेसकॉपी) (5) 'जम्हा एते दोसा तम्हान परिवेयच्चो समाहिमत्तओ अणगते सरिए'
___-निशी व चूर्णि, भाष्य गाथा 1553 (मुनि श्री पुग्यविजय जी कृत प्रेसकॉपी)
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