________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य सम्मूर्छिम मनुष्य : आगमिक सत्य
क्या हमारी कायिक प्रवृत्तियों से सम्मूछिम मनुष्यों की | (प्रस्तुत में संक्षेपरुचि जीवों के लिए विराधना संभव है ? यह प्रश्न पिछले कई वर्षों से उभरता रहा। | रामलालजी महाराज के लेख के प्रत्येक इस संदर्भ में अनेक संप्रदायों के प्रमुखों से पृच्छा भी की गई।
| विचारबिंदु की संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की उनसे प्राप्त उत्तरों पर विमर्श किया गया। स्वाध्याय करते हुए जाती है। विशेष जिज्ञासु, प्रत्येक समीक्षा आगमिक संदर्भो पर जब-जब ध्यान आकृष्ट होता, मन थम के बाद निर्दिष्ट पष्ठ संख्या के आधार पर जाता। अनुप्रेक्षा के क्षणों में वे सूत्र उभरकर सम्मुख आ जाते।
उस संक्षिप्त समीक्षा की विस्तृत माहिती उन सूत्रों एवं उनके अर्थों पर समीक्षात्मक दृष्टिपूर्वक विश्लेषण करने से यह तथ्य प्रकट हुआ कि सम्मूछिम मनुष्यों की
प्राप्त कर सकेंगे। यहाँ जो तर्क दर्शाए हैं विराधना के सन्दर्भ में जो मान्यताएँ चल रही हैं, वे बहुत
उसके अलावा अन्य ढेर सारे तर्क-तथ्य अधिक प्राचीनकाल से नहीं हैं। शायद कुछ ही दशकों या |
वगैरह के लिए संपूर्ण पुस्तक का पठन शतकों से यह परम्परा चली हों। कई परम्पराएँ कछ-कछ | करना ही रहा।) कारणों से चल पड़ती हैं। वे सारी आगम सम्मत ही हो, ऐसा |१. प्रश्रपद्धति तथा निशीथपंजिका जैसे नहीं कहा जा सकता। उक्त परम्परा के सन्दर्भ में जब आगम
प्राचीन ग्रंथ के स्पष्ट उल्लेख द्वारा अभिमत देखा जाये तो यह परम्परा आगम सम्मत नहीं ठहरती।
प्रस्तुत परंपरा ८००-९००-१००० से शास्त्रीय धरातल से अनुप्रेक्षा करते हुए यह विनिश्चय हुआ कि
भी अधिक साल प्राचीन सिद्ध । 'सम्मूछिम मनुष्यों की विराधना हमारी कायिक प्रवृत्तियों
(पृ.११,१२,१३) से संभव नहीं है।' वैसी स्थिति में तज्जन्य प्रायश्चित्त भी निरर्थक सिद्ध होता है।
२. शास्त्रअविरुद्ध, सुविहित श्रमण परंपरा ___ इस संदर्भ में जिन-जिन आगमपाठों व अन्य ग्रन्थों का | में वृत्त-अनुवृत्त परंपरा भी शास्त्रसिद्ध मंथन किया गया उनमें से कतिपय स्थलों की समीक्षा प्रस्तुत ही कही जाती है। संमूर्छिम की
प्रवर्त्तमान परंपरा को तो शास्त्रों का श्री प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में सम्मूछिम मनुष्यों के | प्रबल आधार है। (पृ.१२ वगैरह) उत्पत्ति स्थान आदि के विषय में इस प्रकार का वर्णन किया है :- वे सम्मूछिम मनुष्य कैसे होते हैं? भगवन् ! सम्मूछिम |
|३. इस अर्थ से प्रवर्त्तमान परंपरा की
अद्भुत सिद्धि होती है। (पृ. ८०) मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं? __ गौतम! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर, पैंतालीस लाख योजन | ४. 'अथवा' शब्द असंगत । (पृ.२७) विस्तृत अढ़ाई द्वीप समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस | अकर्मभूमियों में एवं छप्पन अंतर्दीपों में, गर्भज मनुष्यों के पुरुषों के संयोगों में, [ग्राम की गटरों-मोरियों में], नगर की उच्चारों (विष्ठाओं- मलों) में, पेशाबों (मूत्रों) में, कफों में, गटरों -मोरियों में अथवा सभी अशुचि (अपवित्र-गंदे) स्थानों भिधाण ( नाक के मैलों) में, वमनों में, पित्तों में, मवादों में, में स मूर्छिम मनुष्य (माता-पिता के संयोग के बिना स्वत:) रक्तों में, शुक्रों (वीर्यों) में, पहले सूखे हए परन्तु पुन: गीले उत्पः होते हैं। इन सम्मूछिप मनुष्यों की अवगाहना अंगुल के शक्र पुद्गलों में, मरे हुए जीवों के कलेवरों (लाशों) में, स्त्री.. असा वातवें भाग मात्र की होती है। ये अंसंज्ञी, मिथ्यादृष्टि एवं
१२१