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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य सभी पर्याप्तियों से अपर्याप्त होते हैं। ये अंतर्मुहूर्त की आयु भोग
| ५. अस्वाध्याय सूत्र में भी रक्तादि का कर मर जाते हैं। यह सम्मूछिम मनुष्यों की प्ररूपणा हुई।''
सामान्यतया उल्लेख होने से शरीर के (A-1 ) इस आगम पाठ में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है
भीतर रहे रक्तादि से भी असज्झाय कि सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति शरीर के भीतर रहे मल. मूत्र की आपत्ति । (पृ.३२) आदि में नहीं होती है, न ही ऐसा कहा है कि शरीर से बाहर
संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के निकलने के बाद एक मुहूर्त तक मल-मूत्र आदि में सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। सूत्र में सामान्य रूप से
रूप में निर्दिष्ट ऐसी लम-मूत्रादि सम्मूछिम मनुष्यों के उत्पत्र होने के स्थानों का निर्देश किया
स्वरूप अशुचि शरीर से बाहर है। वे स्थान चाहे शरीर के अन्दर हो या बाहर, कहीं भी
निकलने के बाद ही अशुचि के रूप सम्मूछिम मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं। इतना सुस्पष्ट आगमिक
में व्यवहर्तव्य है। (पृ. २८ से ३३) कथन होने के बावजूद पिछले कुछ समय से ऐसा माना जाने
विगतजीवकलेवर कहने द्वारा सजीव लगा कि शरीर में रहे मल-मूत्रादि में एवं शरीर से बाहर
शरीर का निषेध किया । सजीव शरीर निकलने के बाद एक मुहूर्त तक उनमें सम्मूछिम मनुष्यों की
रक्तादि के समूहस्वरूप होने से शरीर उत्पत्ति नहीं होती। (A-2) यदि ऐसा कहा जाये कि 'शरीर की गर्मी के
के भीतर रहे रक्तादि में संमूर्छिम कारण शरीर के भीतर रहे मलादि में सम्मूछिम मनुष्यों की
मनुष्य की उत्पत्ति का निषेध स्पष्टतया उत्पत्ति नहीं होती है' तो ऐमा कथन भी आगमानुसारी नहीं है, |
फलित होता है। (पृ. १५,१६) क्योंकि श्री प्रज्ञापना सूत्र के नौंवे पद में योनि (उत्पत्ति स्थान)
६. मनुष्य आत्मा प्रतिबंधक होने से शरीर का वर्णन करते हुए सम्मृच्छिम मनुष्यों की शीत, उष्ण एवं शीतोष्ण-ये तीनों योनियाँ मानी गयी हैं। यथा
के भीतर संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति "भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्यों की क्या शीत योनि होती नहीं होती। (पृ. १५,१६) है, उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है? | ७. उष्णयोनि वाले जीवों के लिए भी गौतम ! उनकी तीनों प्रकार की योनि होती है।" (1)
| गरमी मृत्यु आपादक - नाशक - इस कथन से यह भी ज्ञात होता है कि शरीर के भीतर की |
उत्पत्तिप्रतिरोधक बन सकती है । (पृ. गर्मी सम्मूछिम मनुष्यों के उत्पन्न न होने में हेतु नहीं हो सकती |
९२ से ९५) अर्थात् शरीर की गर्मी उनकी उत्पत्ति में बाधक नहीं है। (1) से किं तं सम्मच्छिममणुस्सा ? कहि णं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छति ? गोयमा! अंतोमणुस्सखेले पणुतालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवएसु गब्भवतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा, पासवणेसु वा, खेलेसु वा, सिंघाणेसु वा, वतंसु वा, पित्तेसु वा, पूएसु वा, सोणिएसु वा, सुक्कंस वा, सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा, विगतजीवकलेवरेसु वा. थीपुरिससंजोएसु वा, [गामणिद्धमणेसु वा], नगरणिद्धमणेसु वा, सव्वेसु चेव असुइएसु अणेसु, एत्थ णं सम्मच्छिममणस्सा सम्मुच्छति। अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतीए ओगाहणाए असण्णी मिच्छट्रिी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमहत्ताउया चेव कालं करेंति।सेत्तं सम्मच्छिममणुस्सा।
- श्री प्रज्ञापना सूत्र, पद 1 (सूत्र 93), संपादक- मुनि पुण्यविजय जी (2) "सम्मच्छिममणस्साणं भंते ! किंसीता जोणी उसिणा जोपी सीतासिणा जोणी? गोयमा!तिविहा वि जोणी-।"
- श्री प्रज्ञापना' सूत्र, पद 9, (मूत्र-749),सम्पादक- मुनि पुण्यविजय जी