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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य व्यवहार सूत्र में वैसी कोई बात नहीं है । प्रत्युत, मूत्रादि में यदि सतत संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य की जाए तो मूत्र का आचमन करने से जीवंत असंख्य संमूर्च्छिम मनुष्य को अपने पेट में स्वाहा करने की आपत्ति आएगी, साथ में उन समूर्च्छिम मनुष्य की विराधना की आपत्ति भी आएगी ही । अतः जिसमें असंख्य संमूर्च्छिम मनुष्य किलबिला रहे हो वैसे मोक वगैरह के आचमन की बात शास्त्रकार कदापि नहीं करते । शास्त्रकारों ने की हुई मोकआचमन की बात से तो प्रत्युत ऐसा सिद्ध होता है कि शरीरबहिर्निर्गत मोक तुरंत जीवसंसक्त नहीं होता। इस तरह रामलालजी महाराज द्वारा दर्शित व्यवहार सूत्र की मोकप्रतिमा का विचारबिंदु बेबुनियाद ही साबित होता है । संमूर्च्छिम मनुष्य की कायिक विराधना होती है : तथ्य इस तरह रामलालजी महाराज ने जो भी पाठ संमूर्च्छिम मनुष्य की कायिक विराधना के विरुद्ध दर्शाए हैं वे प्रत्येक पाठ संमूर्च्छिम मनुष्य की कायिक विराधना की संभावना के प्रति ही साक्षात् या परोक्षतया अंगुलीनिर्देश करने वाले बनते हैं । उनके अलावा ढेर सारे आगमिक प्रमाण संमूर्च्छिम की कायिक विराधना की शक्यता को ढोल-नगारा बजा कर सिद्ध करने वाले हैं । तथा अन्य भी आगमअविरुद्ध और आगमअनुसारी होने से प्रमाणभूत प्रकरणग्रंथ हैं, जिनमें संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना स्पष्टतया दर्शाई गई है । ५५० से भी अधिक साल पहले हुए पूज्य रत्नशेखरसूरीश्वरजी महाराज ने श्राद्धविधि की स्वोपज्ञ कौमुदी नामक व्याख्या में स्पष्ट फरमाया है कि - " श्लेष्मादीनां च धूल्याच्छादनादियतनामपि कुर्यात्, अन्यथा तेषु असङ्ख्यसंमूर्च्छिममनुष्यसंमूर्च्छन- विराधनादिदोषः । ' ( प्रथम प्रकाश गा. ६.वृ. पुस्तक पृ. ३८) अर्थात् कफ वगैरह अशुचि निकालने के बाद श्रावक को उसके - ९७
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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