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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य नहीं लगता कि आगमिक बाबत के विषय में किसी भी प्रकार का विधान करने से पहले अत्यंत शांत चित्त से सोच-विचार करना चाहिए ? शरीर के बाहर रहे हुए एवं तथाविधकारणवश साहजिक उष्णस्पर्श वाले ऐसे उपपातक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले संमूर्च्छिम मनुष्यों का आश्रय कर उष्णयोनि की संगति अवश्य हो पाएगी । तथा स्त्रीपुंसंयोग में शीतोष्णयोनि भी अवश्य मिलेगी । यहाँ एक बात तो स्पष्टतया समझ लेने जैसी है कि सुस्पष्ट तथा मर्मवेधी उत्तरों के खंडन और उसका अपलाप करने के लिए तत् तत् विषय को अलग दिशा में मोड़ देने का प्रयास सुकुमारमति को चाहे व्यामोह पैदा कर दे, परंतु सूक्ष्मधीसंपन्न आगममनीषी के लिए वह बेनकाब बन कर ही रहते हैं । अतः ऐसे लज्जास्पद प्रयासों से दूर रहने में ही भलाई है । मोक प्रतिमा से परंपरा की ही सिद्धि ० व्यवहारसूत्र की मोक प्रतिमा की बात भी इसी विचारबीज के गवाह हैं कि मूत्रादि में तुरंत - शरीर के बाहर निकलते ही संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती, परंतु कालांतर में होती है । प्रवर्त्तमान परंपरा के अनुसार तथा प्रश्नपद्धति (प्र. ३६) वगैरह के अनुसार स्पष्टतया शरीर से बाहर निकले मूत्रादि अशुचि में दो घटिका के बाद ही (देखिए पृ. १२) संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मानी गई है । अतः रामलालजी महाराज का यह आक्षेप कि 'यदि संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना शक्य होती तो व्यवहार सूत्र में दर्शित मोकप्रतिमा ( = स्वमूत्र का ही आचमन करने का अभिग्रहविशेष ) असंगत हो जाएगी' वह अत्यंत निरर्थक और निराधार साबित होता है । इसका कारण यह है कि आगममान्य मोक आचमन के वक्त संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना का कोई प्रसंग ही नहीं है। दो घटिका तक स्थापना के बाद मोकआचमन की यदि बात होती तो कदाचित् संमूर्च्छिम विराधना की आपत्ति आ सकती । परंतु ९६ -
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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