________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य उष्णयोनि वाले विषय में यह प्रश्न कैसे पेश कर सकते हो ?
इसीलिए हमारा कहना है कि शास्त्रकारों के विधान में अमुकत्र केवलीदृष्ट का आश्रय लेना योग्य होने पर भी अपनी मान्यता की सिद्धि के लिए ऐसे तर्क का आश्रय लेना योग्य नहीं है। प्रत्युत तटस्थता से विचारणीय है कि विवृतयोनि की संगति (अमुकत्र = विकलेन्द्रिय वगैरह में कुछ अलग प्रकार से केवलीदृष्ट के अनुसार मज़बूरन करनी पड़ती है तथापि ) संमूर्छिम मनुष्य विषयक नूतन मान्यता की अपेक्षा प्राचीन परंपरा की बात से अधिक अच्छी तरह से हो सकती हो, तो उस बात का अत्यंत अपलाप करने में हकीकत में आगमनिष्ठा का ही बलिदान लिया जाता है ।
रही बात संमूर्छिम मनुष्य विषयक उष्णयोनि की संगति की । शरीर के भीतर भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मानने वाला पक्ष यूं कहना चाहता है कि - "शरीर में स्थित मल-मूत्र उष्ण होते हैं। अतः संमूर्छिम मनुष्य की उष्ण योनि भी मिलेगी । शरीर के बाहर निकलने के बाद कुछ समय तक शीतोष्णयोनि मिलेगी, तत्पश्चात् शीतयोनि ।'
आपातरमणीय लगती यह बात आगमिक सिद्धांत के साथ विरुद्धता से ग्रस्त है । पन्नवणा सूत्र के नौंवे पद में उष्ण एवं शीत योनि का निषेध करने पूर्वक गर्भज मनुष्यों को शीतोष्णयोनि बताई गई है । यदि शरीर के भीतर संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति उष्णयोनि = उष्णस्पर्शयुक्त उपपात क्षेत्र में हुई गिनी जाए तो फिर गर्भज मनुष्य की उत्पत्ति उष्णयोनि में होना अवश्य स्वीकारना पड़ेगा कि जो आगमिक सिद्धांत को अननुरूप है । अतः रामलालजी महाराज की मान्यता के अनुसार शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले संमूर्छिम मनुष्य की योनि भी गर्भज मनुष्य की माफिक शीतोष्ण ही माननी पड़ेगी । संमूर्छिम मनुष्य में उष्णयोनि की संगति करना तो रामलालजी महाराज के लिए भी शेष ही रहेगा । क्या ऐसा