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तिलकमञ्जरी के पात्रों का चारित्रिक सौन्दर्य
___75 लिए इसके हृदय में कितना प्रेम है, इसका ज्ञान उस समय होता है, जब उसे गन्धर्वक द्वारा लाए गए पत्र से यह ज्ञात होता है कि हाथी के द्वारा उसके अपहरण के बाद से समरकेतु उसके वियोग में अत्यधिक व्यथित है। यह पढते ही वह अपनी प्रेयसी तिलकमञ्जरी का सानिध्य त्याग कर अपने मित्र समरकेतु को देखने के लिए तत्क्षण शिविर की ओर चल पड़ता है। शिविर पहुंचने पर जब यह ज्ञात होता है कि समरकेतु रात में ही उसे खोजने के लिए निकल गया है तो वह भी व्याकुल होकर समरकेतु को खोजने के लिए निकल पड़ता है।" जब छः माह पश्चात् इसे समरकेतु के मिलने की सूचना मिलती है तो वह तुरन्त ही हर्षातिरेक से आगे बढ़कर उसका गाढ़ आलिंगन करता है।" आदर्श प्रेमी : धनपाल ने हरिवाहन को आदर्श प्रेमी के रूप में चित्रित किया है। तिलकमञ्जरी उसके पूर्वजन्म की प्रेमिका व पत्नी है। इस जन्म में भी वही प्रेम उसके मन में सुप्तावस्था में विद्यमान है। गन्धर्वक के द्वारा बनाये तिलकमञ्जरी के चित्र दर्शन मात्र से ही इसके हृदय में प्रेमाङ्कर फूट पड़ता है। गन्धर्वक के जाने के बाद भी वह सदा उसी का चिन्तन करता है। समय भी उसकी प्रेमाग्नि को मन्द नहीं करता। एलालता मण्डप में जब वह प्रथम बार तिलकमञ्जरी को देखता है, तो उसकी प्रेमाग्नि तीव्र हो उठती है। तिलकमञ्जरी के भावों से वह समझ जाता है कि उसके दर्शन से तिलकमञ्जरी के हृदय में भी काम प्रवेश पा गया है। जिससे वह अत्यधिक प्रसन्न हो उठता है। और उसे प्राप्त करने के लिए बेचैन हो जाता है। यह सच्चा प्रेमी है और स्वप्न में भी कभी किसी और कन्या का चिन्तन नहीं करता।
वह तिलकमञ्जरी से इतना प्रेम करता है, कि उसके वियोग की कल्पना भी नहीं कर सकता। जब तिलकमञ्जरी को अपना पूर्वजन्म याद आ जाता है और वह
21. ति. म., पृ. 383-388 22. (क) 'देव, दिष्ट्या वर्धसे। परागतो युवराजः समरकेतुः' इत्यावेदिते गन्धर्वकेण
संभ्रान्तचेताः सहसैव हरिवाहनः परित्यज्यमानतया राजकन्यया सहप्रवृतां कथां 'कथय, कथय क्व वर्तते क्व वर्तते' इति सगद्गदं गदन्नासनादुत्तस्थौ। ... सरभसप्रसारितबाहुयुगल: प्रवेशयन्निव हृदयमेकतां नयन्निव शरीरेण र्निदयाश्लेषनि:पिष्टक्षः स्थलपुलक जालमानिलिङ्ग। वही, पृ. 230-231 (ख) आचार: कुलामाख्याति, देशमाख्याति भाषणम् । सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम् ।। चाणक्य नीति (शीघ्रता या घबराहट
स्नेह का परिचय देती है।) 23. ति. म., पृ. 175-79