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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य देखकर उसने गन्धर्वक के चित्रकला कौशल की प्रशंसा करते हुए कहा कि हर प्रकार से उत्कृष्ट इस चित्र में तरुणी के साथ किसी पुरुष का चित्रण नहीं है, यही एक मात्र वैगुण्य है। यदि किसी पुरुष का चित्रण इसके साथ होता, तो इस चित्र की शोभा अत्यधिक बढ़ जाती।" परम उदार : हरिवाहन स्वभाव से ही दयालु और परोपकारी है। यह न तो किसी को कष्ट दे सकता है और न ही किसी को कष्ट में देख सकता है। निरपराध पशुओं को मारना इसे पसन्द नहीं है। लौहित्य नदी के समीप के वनों में भ्रमण करते हुए वह विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों को देखता है। साथी राजकुमारों के द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी यह किसी भी जानवर को नहीं मारता, अपितु वीणा की मधुर तान से जानवरों के बच्चों तक को भी अपने वश में कर लेता है। परोपकार के लिए भी यह सदा आगे रहता है। किसी को भी कष्ट में देखकर यह इतना द्रवीभूत हो जाता है कि अपना सर्वस्व देकर भी उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करता है। जब यह अनङ्गरति को दुःखी देखता है तो उस के लिए छ: माह तक कठोर तपस्या करके देवी को प्रसन्न करता हैं और जब देवी उससे वर मांगने को कहती है तो वह अनङ्गरति के लिए ही वर मांगता है।” सच्चा मित्र : इसके हृदय में अपने मित्रों के लिए अत्युच्च स्थान है। यह अपने मित्रों को अपने से अभिन्न मानता है। जब इसके पिता मेघवाहन समरकेतु को इसका सहचर बनाते है तो यह उसे अपने सहोदर के समान सम्मान व प्रेम देते है। मत्तकोकिल उद्यान में आर्या का अर्थोद्घाटन कर देने पर जब समरकेतु दुखी होता है तो यह बड़े प्रेम से उसकी व्याकुलता का कारण पूछता है। अपने मित्रों के
17. यद्यदवलोक्यते तत्तत्सर्वमपि रूपमस्य चित्रपटस्य चारुताप्रकर्षहेतुः। एक एव दोषो यदत्र
पुरुषरूपमेकमपि न प्रकाशितम्। अनेन च मनागसमग्रशोभोऽयम्। तदधुनाप्यस्य शोभातिशयमाधातुं प्रेक्षकजनस्य च कौतुकातिरेकमुत्पादयितुमात्मनश्च सर्ववस्तुविषयं चित्रकर्मकौशलमाविष्कर्तुं युज्यन्ते कतिचिदस्याः नरेन्द्रदुहितुः प्रकृतिसुन्दराणि
पुरुषरूपाणि परिवारतां नेतुम्। ति. म., पृ. 166-167 18. जातकौतुकैश्च मृगयाव्यसनिभिः क्षितिपतिकुमारैः क्षपणाय तेषामनुक्षणं व्यापार्यत, न च
प्रकृतिसानुक्रोशतया शस्त्रगोचरगतानपि ताञ्जधान। केवलं कुतूहलोत्पादनाय प्रधाननृपतीनामनवरततन्त्रीताडनाभ्यासलघुतरांगुलि- व्यापारेण सव्येतरपाणिना स्फुटतरास्फालिततरलवीणस्तद्ध्वनि श्रवणनिश्चलनिमीलिते क्षणानर्भकानामपि
विधेयांश्चकार। वही, पृ. 183 19. वही, पृ. 398-400 20. वही, पृ. 113