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तिलकमञ्जरी के पात्रों का चारित्रिक सौन्दर्य
को देखता है, तो उसका कवि हृदय पुनः मुखरित हो उठता है और दो पद्यों में बहुत ही स्वाभाविक ढंग से उसके रूप की प्रशंसा करता है।" एक अन्य स्थल पर जब कोई यह आर्या गाता है -
तवराजहंस ! हंसीदर्शनमुदितस्य विस्मृतो नूनम् ।
सरसिजवनप्रवेशः समयेऽपि विलम्बसे तेन ॥" तब हरिवाहन तत्क्षण ही उसका अर्थ समझ लेता हैं कि हंस के व्याज से उसे ही विद्याधरों की राजधानी में प्रवेश के लिए प्रेरित किया जा रहा है। वीणावादन कला व चित्रकला में निपुणता : वीणा के तारों से मधुर स्वर लहरियाँ निकालना हरिवाहन का शौक है। वह वीणा वादन में सिद्धहस्त है। वह अपनी वीणा की मधुर स्वर तरंगों से न केवल साधारण मनुष्यों, अपितु जंगली जानवरों को भी अपने वश में करने की सामर्थ्य रखता है। उसने वैरियमदण्ड नामक हाथी जो किसी कारणवश उन्मत्त हो गया था और किसी भी महावत के वश में नहीं आ रहा था, को भी अपनी वीणा के मधुर स्वर प्रवाह से वशीभूत कर लिया था। वीणा के मधुर स्वरों से आनन्दित होकर उस हाथी ने अपना उग्र रूप त्याग दिया और आनन्दाश्रु बहाने लगा।"
हरिवाहन ने वीणावादन के समान ही चित्रकला में भी विशेष कुशलता प्राप्त की थी। यह चित्रकला का सूक्ष्म अवलोकन कर उसके गुण और दोषों को बताने में भी निपुण था। गन्धर्वक के द्वारा बनया हुआ तिलकमञ्जरी का अति सुन्दर चित्र 12. दत्तं पत्रं कुवलयततेरायतं चक्षुरस्याः कुम्भावैभौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीकरोति ।
दन्तच्छेदच्छविमनुवदत्यच्छता गण्डभित्तेश्चान्द्रं बिम्बं द्युतिविलसितैर्दुषयत्यास्यलक्ष्मीः ।। अस्या नेत्रयुगेन नीरजदलस्रग्दामदैर्घ्यद्रुहाचञ्चत्पार्वणचन्द्रमण्डलरुचा वक्त्रारविन्देन च। स्वामालोक्य दृशं रुचं च विजितां तुल्यं त्रपाबाधितैर्बद्धा निर्जनसंचरेषु कमलैर्मन्ये
वनेषु स्थितिः ।। ति. म., पृ. 255-56, 13. वही, पृ. 232 14. वही, पृ. 79
उच्चारचतारतममस्यास्तत्क्षणक्षोभितसकलजवनदेवतावृन्दमानन्दमुकुलितदृष्टिभिर्गलितनिजगीतस्मयैः ........ अतिशयित सूरतप्रगल्भकेरलीकण्ठमणितं रणितम्। आगतं च तच्छ्रवणगोचरमाकर्णयन्नेकाग्रेण चेतसा स्वल्पमप्यकृतवारणः कर्णतालैः कपोलमदपरिमलाकृष्टानामलिगणानां स वारणः श्रान्त इव सुप्त इव कीलितश्वगलितचैतन्य इव
क्षणमात्रमभवत्। वही. प्र. 186 16. विशेषतश्चित्रकर्माणि वीणावाद्ये च प्रवीणतां प्राप-वही, पृ. 79
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