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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
शिखर पर एक अत्युग्र व तेजस्वी यक्ष ने विमान की गति को स्तम्भित कर दिया। बार-बार विनयपूर्वक प्रार्थना किए जाने पर भी जब वह मेरे मार्ग से नहीं हटा तो मैंने उसे अपशब्द कहे, जिससे वह रुष्ट होकर बोला- “रे दुरात्मन्! मैं प्रभुजन (लक्ष्मी) द्वारा नियुक्त मन्दिर में निवास करने वाला महोदर नामक यक्षसेनाधिपति हूँ। तुम मेरा स्वरूप नहीं जानते। मैंने ही आत्महत्या करने के लिए समुद्र में गिरी इस कन्या (मलयसुन्दरी) और समरकेतु को बचाया था और तुम मुझे क्रूर हृदय कह रहे हो। इतना विस्तृत आकाश मार्ग होने पर भी तुम उसे छोड़कर आदि देवता के मन्दिर के शिखाग्र भाग में निबद्ध उत्तम पताका के ऊपर से यान में बैठकर जाना चाहते हो। इसके दण्डस्वरूप तुम अब अपने पूर्व जन्म के रूप में प्राप्त करोगे और बिना हमारी स्वामिनी के कृपा की पुन: इस रूप में नहीं आओगे। " यह कहकर उसने विमान को अदृष्टपार सरोवर में फैंक दिया। क्षण-भर में ही मैं शुक बन गया। मैं ही शुक के रूप में आपका पत्र सेनापति कमलगुप्त के पास लेकर गया था और वहाँ से पत्रोत्तर लेकर आया था। यहाँ आने पर आपने प्रेमपूर्वक मुझे अपने अङ्क में बिठा लिया।
( गन्धर्वक का वृत्तान्त समाप्त )
गन्धर्व का वृत्तान्त सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गए । मैंने गन्धर्वक से पत्र लेकर पढ़ा। उसमें कमलगुप्त ने अपनी कुशलता का समाचार दिया था और शङ्का व्यक्त की थी कि आपके वियोग में युवराज समरकेतु न जाने क्या कर लें।
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यह सुनकर मलयसुन्दरी दुःखी हो गई। मैं भी तुम्हारे लिए चिन्तित होकर चित्रमाय को साथ लेकर विमान से शिविर की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर मैंने तुम्हारे विषय में पूछा तो ज्ञात हुआ कि तुम मेरी कुशलता के समाचार को पाने के बाद से ही कहीं चले गए हो। यह सुनकर मैं सेना सहित तुम्हारी खोज में चल पड़ा और मलयसुन्दरी को सान्त्वना देने के लिए चित्रमाय को वापस भेज दिया। इसके पश्चात् मैं लगातार तुम्हें खोजता रहा।
एक दिन मैंने गन्धर्वक को अपनी ओर आते हुए देखा। मैंने जब उससे मलयसुन्दरी और तिलकमञ्जरी के विषय में पूछा तो वह बोला- “कुमार ! आज प्रातः चित्रमाय ने आकर बताया कि मित्र समरकेतु के स्नेह के कारण उन्हें ढूंढने में के लिए कुमार हरिवाहन भी उसी वन में प्रवेश कर गए जिस वन कुमार समरकेतु गए थे। यह सुनकर मलयसुन्दरी विलाप करने लगी । तिलकमञ्जरी ने