________________
56
तिलकमञ्जरी का कथासार वहाँ मैंने तिलकमञ्जरी के भवन में भोज का आनन्द लिया। भोजन के उपरान्त विस्मित प्रतिहारी मन्दुरा ने आकर बताया कि लौहित्य तटवर्ती शिविर से आया हुआ एक शुक आपसे मिला चाहता है। मैंने तुरन्त उसे अन्दर बुला लिया
और उस पर स्नेह की वर्षा करते हुए उसे अपने उत्संग में बिठा लिया। उसी समय तिलकमञ्जरी की कुन्तला नामक शयनपाली ने आकर कहा कि आपने मृगाङ्कलेखा से कहा था कि मैं पुरवासियों से अनुपलक्षित होकर नगर देखना चाहता हूँ। इसलिए देवी तिलकमञ्जरी ने निशीथ नामक यह दिव्य वस्त्र आपके लिए भिजवाया है। इसे धारण करने वाले को कोई नहीं देख सकता और इसके स्पर्श मात्र से ही दीर्घ शाप तक नष्ट हो जाते हैं। यह कहकर उसने वह वस्त्र मुझे
ओढ़ा दिया। उसको धारण करते ही मेरे उत्संग से गन्धर्वक निकला और उसने मुझे प्रणाम किया। गन्धर्वक के समाचार को सुनते ही मलयसुन्दरी और तिलकमञ्जरी भी वहीं आ गई। गन्धर्वक ने उनको भी प्रणाम किया। मेरे पूछने पर गन्धर्वक ने दुःखी होते हुए अपना पूर्व वृत्तान्त कहना आरम्भ किया - गन्धर्वक का वृत्तान्त अयोध्या से निकलकर मैं सांयकाल में त्रिकूट पर्वत पर स्थित विद्याधर राजधानी पहुँचा। प्रात:काल मैंने सम्राट विचित्रवीर्य को देवी पत्रलेखा का सन्देश दिया और उनके द्वारा प्रार्थित हरिचन्दन विमान को प्राप्त करके देवी गन्धर्वदत्ता के दर्शनों की इच्छा से काञ्ची की ओर चला। मार्ग में मैंने मलयपर्वत के किनारे की ओर, प्रशान्त वैराश्रम के समीप किसी स्त्री का करुण आक्रन्दन सुना। आकाश से उतर कर मैंने मूर्छित युवती के पास विलाप करती हुई एक स्त्री को देखा। पूछने पर उसने बताया कि यह राजा कुसुमशेखर की पुत्री मलयसुन्दरी है। शत्रु विग्रह (युद्ध) के कारण इसके पिता ने कुछ सोचकर इसे मेरे साथ आश्रम में रहने के लिए भेज दिया। आज ये इधर-उधर घूमते हुए यहाँ आ गई। इसको ढूंढते हुए मैंने यहाँ आकर इसे मूर्छित पाया। यह सुनकर मैंने मलयसुन्दरी की निरीक्षण कर उसकी मूर्छा का हेतु विष विकार पाया। मैंने विमान के मध्य में नलिनीदल के मृणालों की शय्या रचकर मलयसुन्दरी को उस पर लिटा दिया और अपने सहचर चित्रमाय से कहा कि मैं विषोपशमन औषधि खोजने जा रहा हूँ। आप इस दुःखी स्त्री को सान्त्वना देने के लिए एक दिन रुक जाओ। अगर मुझे आने में विलम्ब हो जाए तो आप किसी भी रूप में जाकर आदरपूर्वक कुमार हरिवाहन को रथनूपुरचक्रवाल नगर ले आना। यह कहकर मैं शीघ्रता से विमान द्वारा वैताढ्य पर्वत की रत्नराल नामक अटवी की ओर चल पड़ा। मार्ग में एकशृंग पर्वत के