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________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य लेखहारक पिता चन्द्रकेतु का आदेश लेकर आया कि काञ्ची नरेश कुसुमशेखर की सहायता के लिए सैन्य बल सहित काञ्ची नगरी की ओर कूच करो। मैं अपनी सेना लेकर काञ्ची आ गया और आपको सर्वत्र खोजने लगा। आज कुसुमाकर नामक इस उद्यान के कामदेव के मन्दिर में आया और आपके दर्शनों की अभिलाषा से दरवाजे के पास ही मत्तवारणक में बैठकर प्रत्येक नारी को देखने लगा। आपके दर्शन न होने से दु:खी होकर मैंने सांयकाल में परिजनों को वापस भेज दिया और स्वयं मन्दिर में बैठ गया। यहाँ बन्धुसुन्दरी की आक्रन्दन ध्वनि सुनकर आपकी सहायतार्थ आपके पास आ गया। सारी वार्ता सुनकर बन्धुसुन्दरी बोली कि आप किसी को देखे जाने से पूर्व रात्रि में ही इसे अपने देश ले जाएँ अन्यथा महाराज कुसुमशेखर सन्धि करने के लिए प्रात:काल में मलयसुन्दरी को वज्रायुध को सौंप देगें। परन्तु समरकेतु ने इसे अनुचित बताया और कहा कि मुझे तुम्हारे पिता की सहायता करनी है। यह कहकर वह अपने शिविर में चला गया। तदनन्तर बन्धुसुन्दरी ने विद्याधरों के द्वारा अपहरण से लेकर मेरा सारा वृत्तान्त मेरी माता को बता दिया। मेरी माता ने सारा वृत्तान्त मेरे पिता को बता दिया। यह सुनकर मेरे पिता ने मुझे मेरी माता की बाल सखी तरंगलेखा के साथ ऋषि शांतातप के आश्रम में भेज दिया। उस आश्रम में मैं हारादि समस्त आभूषणों को त्यागकर मुनिजनोचित वेष को धारण कर समय बिताने लगी। एक दिन काञ्ची से आए एक ब्राह्मण ने काञ्ची युद्ध के विषय में बताया कि न जाने कैसे काञ्ची के शत्रुओं ने काञ्चीपक्ष के राजाओं और सेना को दीर्घ निद्रा में सुला दिया। यह सुनते ही मैं मूर्छित हो गई। चेतना आने पर आत्महत्या का निश्चय कर तपोवन से निकलकर समुद्र की ओर चल पड़ी। उसी समय मैंने तरंगलेखा को अपनी ओर आते देखा। उसे देखकर मैंने किंपाक नामक वृक्ष का विषैला फल खा लिया। उसके खाते ही मेरा शरीर शिथिल हो गया और मैं मूर्छित हो गई। विष का प्रभाव कम होने पर मैं होश में आई और मैंने स्वयं को दिव्य काष्ठमय भवन में नलिनी पत्र शय्या पर पाया। उस भवन की खिड़की से मैंने इस अदृष्टपार सरोवर के मध्य भाग में मन्दिर को देखा। प्रिय के वियोग से दु:खी मैंने इसी सरोवर में प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया, तभी उस भवन में एक ओर पड़े एक ताड़पत्र को देखकर उसे पढ़ा। वह पत्र समरकेतु का था। जिसमें उसने अपनी कुशलता के विषय में लिखा था। उसकी कुशलता का समाचार पाकर मैं प्रसन्न हो गई और उस
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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