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________________ 51 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य तुम्हारी इस पुत्री के विवाह के समय तुम्हारा अपने बन्धुओं से मिलन होगा। इस वृत्तान्त से ही मुझे अपनी माता के विषय में ज्ञात हुआ। यह सुनकर विचित्रवीर्य ने वास्तविकता के ज्ञान के लिए चित्रलेखा को नियुक्त कर दिया। तत्पश्चात् तपनवेग नामक विश्वस्त पुरुष को बुलाकर कहा कि सभी दर्शनीय स्थल दिखाकर इसे व सभी राजकुमारियों को छिपे रूप से उनके भवनों में पहुँचा दो। वहाँ घूमते हुए मैनें भगवान महावीर के दर्शन किए और समुद्र को देखने की इच्छा से मन्दिर की दीवार पर चढ़ गई। वहाँ मैनें नौका पर आरूढ़ अतिसुन्दर राजकुमार को देखा। उसे देखते ही मेरे मन में उसके लिए अनुराग उत्पन्न हो गया। वह भी मुझे देखकर स्मर-विकार से पीड़ित हो गया। कुछ क्षणों पश्चात् उसके सुन्दर आकृति वाले नाविक ने आकर प्रणाम करके मुझसे कहा - ये सिंहल द्वीप के अधिपति चन्द्रकेतु के पुत्र समरकेतु है। सागरान्तर द्वीप विजय के प्रसंगवश यहाँ आ गए हैं। दुष्प्रवेश्य इस मन्दिर में प्रवेश के लिए मार्ग दर्शन की कृपा करें। मेरे संकेत करने पर राजकुमारी वसन्तसेना ने कहा - भद्र! हम अलग-अलग देश की राजकुमारियाँ है और इस स्थान से अपरिचित हैं, अतः आपका मार्गदर्शन नहीं कर सकती। यह सुनकर नाविक ने अलपक दृष्टि से मुझे देखते हुए राजकुमार को सारी बात बता दी और उसे वापस ले जाने लगा। यह देखकर मैंने वसन्तसेना से उन्हे रोकने को कहा। वसन्तसेना ने उन्हें रोक लिया। रुकने पर वह नाविक नौका की स्तुति के व्याज से मुझसे अपने स्वामी की अर्धांगिनी बनने की प्रार्थना करने लगा। मैं उसके विषय में सोचने लगी। उसी समय तपनवेग ने पुजारी के पुत्र के साथ आकर कहा कि सभी लोगों की दृष्टि से ओझल कर देने वाले इस हरिचन्दन को ग्रहण कीजिए और पूजा के लिए लाए गए दिव्य पुष्पों के इस हार को सिर पर धारण कर लीजिए। पुजारी पुत्र ने कहा कि तेजी से नृत्य करने के कारण करघनी से गिरी हुई इस पद्मराग मणि को भी ग्रहण कीजिए। तब मैंने समरकेतु को लक्ष्य कर कहा अङ्गीकृतश्चायं नायकः नायक (मणि, अन्यत्र समरकेतु) को स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु स्थान (करघनी, अन्यत्र काञ्ची) आने पर उसे ग्रहण किया जाएगा। यह कहकर मैंने समुद्र पूजा के व्याज से वह पुष्पमाला राजकुमार के गले में डाल दी। तदनन्तर हरिचन्दन का तिलक लगाने से मेरे अदृश्य होने पर, मेरे वियोग से दु:खी होकर वह समुद्र में कूद पड़ा। मैं भी उसी के साथ प्राणों को त्यागने का निश्चय कर समुद्र में कूद 6. अङ्गीकृतश्चायं नायकः। किंतु तिष्ठतु तादद्यावदहमिहस्था। स्वस्थानमुपगता तुकाञ्चीमध्यमागतं ग्रहीष्याम्येनम् ......। ति. म., पृ. 288
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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