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तिलकमञ्जरी का कथासार
मलयसुन्दरी का वृत्तान्त :
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दक्षिण समुद्र के पास अपनी शोभा से पृथ्वी के सभी नगरों को जीत लेने वाली काञ्ची नामक नगरी हैं। उसमें सौन्दर्य में कामदेव को भी तिरस्कृत करने वाले राजा कुसुमशेखर राज्य करते है। मैं उस कुसुमशेखर की पुत्री हूँ । गन्धर्वदत्ता नामक मेरी माता उनकी महारानी है। मेरे जन्म के समय समस्त दैवज्ञों में श्रेष्ठ वासुरात ने मेरा भविष्यफल बताया कि जिसका इस कन्या के साथ पाणिग्रहण होगा, वह परम पराक्रमी चक्रवर्ती सम्राट् के द्वारा प्रदत्त चारों समुद्रों से परिवेष्टित भूमि पर राज्य करेगा । दस दिन बीतने पर माङ्गलिक क्रियाओं के साथ मेरा नाम मलयसुन्दरी रख दिया गया। क्रमपूर्वक मैंने बाल्यावस्था को लांघ कर युवावस्था में प्रवेश किया। एक रात जब मैं अपने भवन में सो रही थी, तो पटह, वल्लरी व मृदंग आदि वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि से मेरी निद्रा भङ्ग हो गई और मैंने स्वयं को जिन मन्दिर में राजकन्याओं से घिरा पाया । यह देखकर मुझे समझ नहीं आया यह क्या है? तब मैंने रत्नमण्डप में बैठी सौम्यवेषधारी वृद्ध स्त्री से आदर सहित उस स्थान के विषय में पूछा। उसने बताया 'पुत्रि ! यह दक्षिण दिशा के समुद्र में स्थित पञ्चशैल नामक द्वीप है और ये वैताढ्य पर्वत के नगरवासी आकाश विहारी विद्याधर है। इनके राजा विचित्रवीर्य है। भगवान जिन के अभिषेकोत्सव पर नृत्य के लिए ही तुमकों यहाँ लाया गया है। " भगवान जिन के अभिषेक कर्म और पूजा की समाप्ति पर नृत्य आरम्भ हुआ । नृत्य के समाप्त होने पर मेरे नृत्य कौशल से प्रसन्न होकर विद्याधरेन्द्र विचित्रवीर्य ने मुझे पास बुलाकर अपने पास बिठा लिया और प्रेमपूर्वक मुझसे मेरे नृत्य - शिक्षक का नाम पूछा। मैंने बताया कि नृत्य की शिक्षा देने वाले मेरे अनेक गुरु थे परन्तु ये विशेष नृत्य प्रयोग मैंने अपनी माता गन्धर्वदत्ता से सीखें है । 'कहीं यह गन्धर्वदत्ता नगर उपद्रव में गुम हुई मेरी पुत्री तो नहीं' यह विचारकर उन्होंने मेरी जननी के माता, पिता के विषय में जानना चाहा । तब मैंने बताया कि मेरी माता ने कभी मुझे उनके विषय में नहीं बताया। तो भी उनके विषय में मुझे कुछ ज्ञान हैं, क्योंकि एक बार काञ्ची नगरी में एक त्रिकालदर्शी महामुनि आए थे। मेरी माता मुझे लेकर उनके दर्शनार्थ वहाँ गई और मुनि को नमस्कार करके कहा कि विद्याधर वंश में उत्पन्न मैं बाल्यावस्था में ही नगर - उपद्रव में अपने पिता से वियुक्त हो गई थी। बहुत समय से मैं यहाँ हूँ, परन्तु मुझे गुरुजनों (पितादि) का समागम लाभ नहीं मिला। इस पर महामुनि ने कहा कि