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________________ तिलकमञ्जरी का कथासार का आसन मंगाकर अपने पास बिठा लिया और उसकी वीरता तथा शालीनता की प्रशंसा करते हुए कहा कि देवी लक्ष्मी ने मुझे दिव्य अंगूठी के माध्यम से दूसरे पुत्र के रूप में तुम्हें दे दिया है। यह कहकर मेघवाहन ने हरिवाहन से कहा कि सभी गुणों में उत्तम यह समरकेतु आज से आपका सहचर बना दिया गया है। अब अहर्निश आपको साथ रहना है। हरिवाहन पिता की आज्ञा के हृदयस्थ कर सहोदर भाई के समान प्रेमपूर्वक समरकेतु को अपनी माता मदिरावती के पास ले गया और उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। 42 मध्याह्न में सुदृष्ट नामक अक्षपटलिक ने आकर सूचना दी कि सम्राट् ने हरिवाहन को कश्मीरादि मुख्य ग्रामों से युक्त उत्तरापथ का राज्य व समरकेतु को सम्पूर्ण अंगादि जनपद का राज्य दे दिया है। यह सुनकर दोनों प्रसन्न हुए और आमोद-प्रमोद में आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगे। एक दिन ग्रीष्म ऋतु में हरिवाहन प्रातः उठकर, नित्यकर्मो से निवृत्त होकर समरकेतु व अन्य विश्वस्त नृपकुमारों के साथ सरयू नदी के समीप स्थित मत्तकोकिल नामक उद्यान में गया । वहाँ इतस्ततः भ्रमण करते हु वे सरयू तट पर स्थित कामदेव के मन्दिर के समीप अत्यन्त मनोहारी जलमण्डप में पहुंचे। वहाँ परिजनों द्वारा निर्मित पुष्प शैय्या पर बैठकर काव्य गोष्ठी प्रारम्भ कर मनोरंजन करने लगे। उसी समय मंजीर नामक वन्दिपुत्र ने आकर निवेदन किया कि “चैत्रमास की शुक्ल त्रयोदशी को इसी मन्दिर के प्राङ्गण में मुझे एक पत्र मिला था। मुझे इसमें लिखे आर्या वृत्तबद्ध श्लोक का अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। कृपया आप इसका अर्थ कर दें। यह कह कर उसने वह श्लोक सुना दिया।” हरिवाहन ने कहा कि यह किसी धनाढ्य की पुत्री का अपने प्रिय को भेजा गया प्रेम पत्र है। इस पत्र में उसने प्रेम-विवाह के लिए गुप्त रूप से विवाह-स्थल का संकेत किया है। इस प्रकार हरविाहन ने विस्तृत रूप से उस श्लोक का अर्थ कर दिया। हरिवाहन के अर्थ कर देने पर वन्दिपुत्र मन्जीर और अन्य राजपुत्र हर्षित होकर हरिवाहन की प्रतिभा की प्रशंसा करते हैं, परन्तु श्लोक के अर्थ को हृदयङ्गम कर समरकेतु व्याकुल हो जाता है और उसके नेत्र आर्द्र हो जाते है। उसकी इस दशा को देखकर कलिंगदेश के राजकुमार कमलगुप्त ने उसकी 2. गुरुभिर्दत्तां वोढुं वाञ्छन्मामक्रमात्त्वमचिरेण । स्थातासि पत्रपादपगहने तत्रान्तिकस्थाग्निः ।। ति म., पृ. 109
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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