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तिलकमञ्जरी का कथासार कि दिव्य आभूषण दिव्य मूर्तियों पर ही शोभित होते हैं। यह कहकर सम्राट ने वह हार देवी के चरणों में अर्पित कर दिया। उसी समय सम्राट ने देवी की प्रतिमा के समीप अट्टहास करते हुए एक वेताल को देखा। उस वेताल को सिर से पैर तक देखकर व कुछ हँसकर राजा ने कहा - भगवन् ! आपके अट्टहास से मुझे आश्चर्य हो रहा है। आप इस प्रकार विचित्रता से क्यों हंस रहे हैं?वेताल ने कहा - हे राजन। मैं आपकी चेष्टाओं पर ही हँस रहा हूँ। आप किसी फल की इच्छा से देवी लक्ष्मी की पूजा कर रहे हैं। संसार में ऐसा व्यवहार है कि फलाभिलाषी व्यक्ति अपनी सेवा से पहले देवता के सेवक को प्रसन्न करता है और उसके द्वारा देवता को प्रसन्न करता है। परन्तु आप तो सर्वथा विपरीत कार्य कर रहे हैं। आप अभिषेक, वस्त्र, माला आदि के द्वारा देवी की आराधना करते हैं, परन्तु सदा साथ रहने वाले मुझ सेवक को आहार ग्रहण करने के लिए भी आमन्त्रित नहीं करते। मुझसे मित्रता करके आप अभीष्ट की सिद्धि कर सकते हैं। यह सुनकर राजा ने मंद हंसकर उपहास पूर्वक कहा - अज्ञानता वश ही मैंने ऐसा किया है, क्योंकि जन्म से लेकर आज तक मैंने किसी देवता की आराधना नहीं की हैं। अब आप यह फल, लड्डू आदि ग्रहण करें। वेताल ने कहा - हे राजन्! हम तो निशाचर हैं, अतः फलादि से मुझे क्या प्रयोजन ?यदि आप मुझे प्रसन्न ही करना चाहते हैं, तो मुझे किसी ऐसे राजा का कपालकर्पर प्रदान करें, जिसने कभी अपने याचकों को निराश न किया हो और प्राणों का संकट उत्पन्न होने पर भी शत्रु के समक्ष घुटने न टेके हों। राजन ने कहा-हे प्रेतनाथ! मैंने युद्ध में ऐसे असंख्य राजाओं को मारा हैं, परन्तु उनके कपालों का संग्रह नहीं किया है। आपकी सेवा में मेरा सिर प्रस्तुत है। वेताल के स्वीकार करने पर राजा ने स्वयं सिर काटकर देने के लिए तलवार को अपनी गर्दन पर रखा। गर्दन के आधा कटने पर अचानक ही राजा का हाथ स्तम्भित हो गया और उसे स्त्रियों का हाहाकार सुनाई दिया। उसी समय सम्राट ने देवाङ्गनाओं से घिरी हुई देवी लक्ष्मी को देखा। ___ ये देवी लक्ष्मी ही हैं, ऐसा निश्चय होने पर भी किसी विभिषिका की आशंका से राजा ने कुछ सन्देह करते हुए उनका परिचय पूछा। लक्ष्मी ने अपना परिचय देकर राजा का सन्देह दूर किया और कहा कि मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ?राजा ने कहा - हे देवी! आपके दर्शन मात्र से ही मैं कृतार्थ हो गया हूँ, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। परन्तु आप मुझे इतनी शक्ति दे दीजिए, जिससे मैं अपना सिर काटकर इस वेताल को देकर अपने वचन का पालन कर सकूँ। यह सुनकर गद्गद होते हुए देवी ने कहा- हे राजन्! तुमने मेरे स्वरूप को ठीक से नहीं जाना।