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________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य पराक्रम, त्यागशीलता, प्रजापालन व धार्मिक वृत्ति के विषय में वार्ता सुनी है। आपके दर्शनों से मुझे भगवान ऋषभदेव के दर्शनों का फल तत्क्षण ही मिल गया है। मैं सौधर्म नामक देवलोक का निवासी ज्वनलप्रभ हूँ। स्वर्ग से नन्दीश्वर द्वीप जाते हुए मार्ग में इस परम पवित्र जिनेश्वर के मन्दिर को देखकर दर्शनार्थ रुक गया था। अब मुझे नन्दीश्वर द्वीप जाना है, जहाँ पर स्वर्ग लोक से जिन मन्दिर की शोभा को देखने के लिए मेरा परम मित्र सुमाली स्वर्गलोक से गया था। नन्दीश्वर द्वीप पर रतिविशाला नामक नगरी में उन देव दम्पत्तियों का निवास स्थान है। मुझे अपने अनुचरों से ज्ञात हुआ है कि रतिविशाला नगरी की पूर्व शोभा नष्ट हो गई है और वहाँ अनेक प्रकार के अनिष्ट हो रहे हैं। सुमाली का भवन भी वीरान सा हो गया है। यह सुनकर मैं चिन्तित होकर उसकी सहायता के लिए जा रहा हूँ, क्योंकि ये अशुभ शकुन उसकी अथवा उसकी पत्नी की मृत्यु को सूचित कर रहे है। वहाँ जाकर मैं उसे सद्कार्यों में प्रवृत्त करूँगा। मेरी दिव्य आयु भी समाप्त प्रायः है तथा मुझे भी दूसरे जन्म के सुधार के लिए शुभ कर्मों को करना है। यद्यपि आपको किसी भी वस्तु अथवा वर का लोभ नहीं है और आप किसी के भी समक्ष हाथ नहीं फैलाते, तथापि मेरे मन के सन्तोष के लिए आप स्वर्ग के सभी आभूषणों में श्रेष्ठ इस चन्द्रातप नामक हार को स्वीकार करें। इस हार के पवित्र मोतियों को क्षीर सागर ने स्वयं प्रेमपूर्वक पिरो कर अपनी पुत्री लक्ष्मी को दिया था। लक्ष्मी ने इन्द्र के पुत्र जयन्त के जन्म के अवसर पर प्रसन्न होकर यह हार इन्द्राणी को दे दिया था। इन्द्राणी ने सखी के स्नेहपाश में बंधकर यह हार अपनी सखी व मेरी पत्नी प्रियङ्गसुन्दरी को दे दिया। मित्र सुमाली को मिलने जाते हुए प्रियतमा के विरहजन्य दु:ख को दूर करने के लिए मैं उसके इस हार को कण्ठ में धारण करके आया हूँ। आप बिना किसी सोच-विचार के इस हार को ग्रहण करें। आपके ग्रहण न करने पर भी स्वर्गलोक को छोड़ते समय यह हार मुझसे दूर हो जाएगा और आपके ग्रहण करने पर, मेरे पृथ्वी पर जन्म लेने पर कदाचित् मेरे नेत्रों का आनन्दित करेगा। प्रियङ्गसुन्दरी भी स्वर्गलोक से निकल कर पुनः पृथ्वी पर जन्म लेगी। वह भी कालक्रम के वशीभूत होकर कदाचित् इस हार को देखकर कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत्त हो सकेगी। यह कहकर उस दिव्य वैमानिक ने वह हार सम्राट मेघवाहन को दे दिया। राजा के हार ग्रहण करते ही वह वैमानिक अन्तर्ध्यान हो गया। राजा ने उस हार को उत्तरीय में बाँधकर भगवान आदिनाथ की पूजा की और अपने भवन में आकर भगवती लक्ष्मी की पूजा करके, देवी की प्रतिमा के समक्ष सम्पूर्ण वृतान्त कहा और बोला
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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