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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
स्तुति की गई है। हेमचन्द्रगणि के अनुसार यद्यपि भगवान की स्तुति में सर्वत्र नमस्कार प्रभाव होता है तथापि विशेष प्रकार का नमस्कार विध्न के विनाश तथा भक्ति की अतिशयता के प्रतिपादनार्थ होता है।"
धनपाल ने गुरु सेवा की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है कि गुरुजनों की सेवा कभी भी निष्फल नहीं होती। भगवान के स्मरण से भय व दुःख का नाश होता है।"
ऋषभपंचाशिका पर प्रभानन्दाचार्य ने 'ललितोक्ति' नामक वृत्ति लिखि है तथा हेमचन्द्रगणि ने 'विवरण' नामक वृत्ति की रचना की है। ऋषभपंचाशिका पर 'अवचूरिचतुष्टयम्' भी प्राप्त होता है जो इस प्रकार से है -
धर्मशेखररचित - संस्कृत-प्राकृत अवचूरि नेमिचन्द्रमुनिकृत - अवचूरि चिरन्तनमुनिरचित - अवचूर्णि
पूर्वमुनि रचित - अवचूरि 7. सत्यपुरीय-श्री-महावीर-उत्साह" : धनपाल ने सत्यपुर के भगवान महावीर की स्तुति में इसकी रचना की। यह अपभ्रंश भाषा में लिखि गई है तथा इसमें 37 पद्य हैं। यह स्तुति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह महमूद गजनवी के उस मार्ग पर प्रकाश डालती है, जिस मार्ग का प्रयोग उसने सोमनाथ मन्दिर को खण्डित करने के समय किया
56. जयजंतुकप्पपायव! चंदायव। रागपंकयवणस्स।
सयलमुणिगामगामणि! तिलोअचूडामणि! णमो ते।। - ऋ. पं., पद्य 1 57. वही, पृ. 2 58. मुणिणो वि तुहल्लीणा, नमिविनमी खेअराहिवा जाया।
गुरुआण चलण सेवा, न निप्फला होइ कइआ वि।। - वही, पद्य 14 भमिओकालमणतं, भवम्मि भीओ न नाह ! दुक्खाणं ।
संपई तुमम्मि दिढे, जायं च भयं पलायं च ।। वही, पद्य 48 60. वही, पृ. 166-199 61. Yadav, Ganga Prasad; Dhanpal and his time, p. 22