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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
धनपाल धारानगरी के राजा मुञ्ज तथा उनके उत्तराधिकारी भोजराज के आश्रित थे। राजा मुञ्ज का भोजराज पर अत्यधिक स्नेह था, इसीलिए मुञ्ज ने भोजराज का राज्याभिषेक स्वयं किया था। धनपाल ने अपनी विद्वता से राजा भोज की सभा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। आचार्य मेरूतुंग के अनुसार धनपाल राजा भोज की सभा के अन्यतम पण्डित थे। राजा मुञ्ज ने इनकी काव्य कला से प्रसन्न होकर अपनी राजसभा में 'सरस्वती' की उपाधि से सम्मानित किया था।'
धनपाल वैदिक कर्मकाण्डों को करने वाले कट्टर ब्राह्मण थे। धनपाल के अनुज शोभन ने जैन धर्म की दीक्षा ली थी। बाद में धनपाल ने भी अपने अनुज शोभन व जैन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर जैन धर्म की दीक्षा ली। प्रबन्ध चिन्तामणि में धनपाल के जैन धर्म को स्वीकार करने की कथा इस प्रकार दी गई
एकबार धनपाल के पिता सर्वदेव जैन मुनि वर्धमान सूरि के प्रवचनों से उनके गुणों से प्रभावित हो गये। उनके गुणों में अनुरक्त होकर वे वर्धमान सूरि के उपाश्रय में गए तथा उनसे कहा कि मेरे पिता देवर्षि राजाओं से दक्षिणास्वरूप अत्यधिक धन प्राप्त करते थे। इस कारण मुझे अपने गृह में संचित निधि होने का संदेह है। सर्वदेव ने संचित धन मिलने पर आधा धन उन्हें देने का वचन दिया। शुभ मुहूर्त में मुनि द्वारा निर्देशित स्थान से सर्वदेव को धन की प्राप्ति होने पर मुनि ने सर्वदेव से उसके दो पुत्रों में एक को जैन धर्म में दीक्षित करने हेतु माँगा। सर्वदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को मुनि का शिष्य बनकर उन्हें ऋणमुक्त करने के लिए कहा, परन्तु कट्टर ब्राह्मण धनपाल ने जैन धर्म की बहुत निन्दा की। तब धनपाल के अनुज शोभन ने जैन धर्म की दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया।
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आकीर्णावितलः सरोजकलशच्छत्रादिभिर्लाञ्छनैस्तस्याजायत मांसलायतभुजः श्रीभोज इत्यात्मजः। प्रीत्या योग्य इति प्रतापवसति: ख्यातेन मुञ्जाख्यया यः स्वे वाक्पतिराजभूमिपतिना राज्येऽभिषिक्तः स्वयम्।।-ति. म., भूमिका, पद्य 43 अभ्यस्तसमस्तविद्यास्थानेन धनपालेन श्रीभोजप्रसाद सम्प्राप्त समस्तपण्डितप्रकृष्टप्रतिष्ठेन - प्रबन्धचिन्तामणि, पृ. 36 तज्जन्मा जनकांघ्रिपंकजरजः सेवाप्तविद्यालवो विप्रः श्रीधनपाल इत्यविशदामेतामबध्नात् कथाम्। अक्षुण्णोऽपि विविक्तसूक्तिरचने यः सर्वविद्याब्धिना श्रीमुञ्जेन सरस्वतीति सदसि क्षोणीभृता व्याहतः।। - ति. म., भूमिका, पद्य 53 मेरूतुंग; प्रबन्धचिन्तामणि, पृ. 36
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