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काव्य सौन्दर्य
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आधार तत्व मानते हुए कहते हैं - कवि वाणी केवल कथा पर आश्रित होकर जीवित नहीं रहती, अपितु उसके जीवन का आधार है रसास्वादन कराने वाले प्रसंगों की अतिशयता । " भर्तृहरि ने भी कहा है- सुकवियों की वाणी उनके मरणोपरान्त भी यशरूपी काया में उन्हें जीवित रखती है । 4
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अनेक परवर्ती आचार्यों ने चमत्कार को सौन्दर्य का मूल माना है। आचार्य क्षेमेन्द्र के औचित्य विषयक मत को उद्धृत करते हुए डॉ. दीक्षित कहते हैं कि क्षेमेन्द्र ने औचित्य से ही चमत्कार का उदय स्वीकार कर लिया, क्योंकि औचित्य के अभाव में काव्य में उस मनोज्ञता ( सौन्दर्य) के उदय की आशा नहीं की जा सकती, जो सहृदय को आकर्षित कर सके । ” क्षेमेन्द्र ने औचित्य को रस सिद्ध काव्य का जीवित कहा है। औचित्य के कारण ही रस का चारुचर्वण होता है।" चारु पद सौन्दर्य का वाचक है तथा चर्वणा आस्वादन का । इस प्रकार क्षेमेन्द्र ने परोक्षत: सौन्दर्य की ही विवेचना की है।
इसी प्रकार भामह, दण्डी, रुद्रट, विश्वनाथ, अभिनवगुप्त प्रभृति अनेक आचार्यों ने सौन्दर्य तथा सुन्दर पद का प्रयोग किया है अथवा उनके वाचक पदों का बहुशः प्रयोग किया है। यहां पर कुछ आचार्यों के मतों का संक्षेप में उल्लेख किया गया है। इस विवेचना से यह स्पष्ट है कि संस्कृत वाङ्मय में सौन्दर्य की अवधारणा नवीन नहीं है । संस्कृतज्ञ सौन्दर्य तत्त्व की सूक्ष्मता को देख चुके थे, समझ चुके थे तथा उसकी विवेचन कर चुके थे।
सौन्दर्य का क्षेत्र
पाश्चात्य व भारतीय दृष्टिकोणों के पर्यालोचन से यह ज्ञात होता है कि कुछ विद्वान् सौन्दर्य का संबंध केवल ललित कलाओं से मानते हैं तथा कुछ कलाओं के अतिरिक्त प्रकृति और जगत् के प्रत्येक क्षेत्र में भी सौन्दर्य का दर्शन करते हैं।
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निरन्तररसोद्गागर्भसन्दर्भनिर्भराः । गिरः कवीनां जीवन्ति न कथामात्रमाश्रिता । व. जी.,
चतुर्थ उन्मेष, पृ.417
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् । नी. श., पद्य 21
सौन्दर्य तत्त्व, दासगुप्त, भूमिका, पृ. 42
(क) औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् । औ. वि. च., 1/5 (ख) औचित्यस्य चमत्कारकारिणश्चारुचर्वणे रस जीवितभूतस्य । वही, 1/3