SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्य सौन्दर्य करने का प्रयत्न करता है। इस व्यक्त रूप के द्वारा भावक कलाकार की भावना या मानसिक अभिव्यञ्जना तक पहुँच पाता है।" अभिव्यञ्जना आत्मिक क्रिया है। यह वह साधन है, जो संवेदन के धुंधले क्षेत्र से भाव या अनुभूति को निकाल कर बोधगम्य बनाती है। सौन्दर्य सफल अभिव्यञ्जना है। यदि अभिव्यञ्जना सफल नहीं है तो वह अभिव्यञ्जना ही नहीं है। सुन्दर में एकता होती है, क्योंकि सुन्दर में मात्रा का भेद अशक्य है। सुन्दर का अर्थ ही है- पूर्ण सुन्दर, जो पूर्ण नहीं है, वह सुन्दर भी नहीं है। अधिकतर सौन्दर्यशास्त्री कलाकार के आनन्द के विषय में विवेचना नहीं करते, उनकी दृष्टि मुख्यतः भावक पर रहती है। किन्तु क्रोचे ने स्रष्टा को भी आनन्द का भोगी माना है। उसके अनुसार सफल अभिव्यञ्जना से कलाकार को भी आनन्द प्राप्त होता है। इसी प्रकार अनेक अन्य पाश्चात्य दार्शनिकों ने सौन्दर्य की विवेचना की है। इन विद्वानों में कुछ की सौन्दर्य दृष्टि व्यक्तिपरक, कुछ की विषयपरक तथा कुछ की आत्मपरक है। इनमें मतैक्य दृष्टिगोचर नहीं होता। डॉ. नरसिम्हाचारी का मत है कि सुन्दर की खोज में पाश्चात्य विद्वानों व दार्शनिकों की एक लम्बी पंक्ति अवश्य प्रवृत्त हुई है, किंतु सुन्दर का स्वरूप निर्धारित करने में कोई सर्वमान्य ढंग से सफल नहीं हो पाया है। संस्कृत वाङ्मय में सौन्दर्य यह माना जाता है कि संस्कृत वाङ्मय में 'सौन्दर्य' पद का प्रयोग अधिक प्राचीन नहीं है। पाश्चात्य विद्वान् भी आँखे मूंदकर तथा यह सोचकर अभिभूत होते रहते हैं कि उनका सौन्दर्य विषयक चिन्तन सर्वाधिक प्राचीन है और अनेक भारतीय विद्वान् भी यही मानते हैं कि सौन्दर्य की अवधारणा पश्चिम की देन है। किंतु यदि पूर्वाग्रह त्याग कर चिन्तन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में वैदिक काल से ही सौन्दर्य के प्रति विशेष आकर्षण रहा है। प्राचीन काल से ही संस्कृत वाङ्मय में सौन्दर्य के वाचक और व्यञ्जक पदों का प्रयोग होता आया है। अमरकोश में सुन्दर के बारह पर्याय दिए गए हैं -सुन्दर, रुचिर, चारु, सुषम, साधु, शोभन, कांत, मनोरम, रुच्च, मनोज, मञ्जु और मञ्जुल।” ललित, कमनीय, 37. सौन्दर्य तत्व निरूपण ; डॉ. नरसिम्हाचारी, पृ. 32 38. पाश्चात्य काव्य शास्त्र ; देवेन्द्र नाथ शर्मा, पृ. 168-170 39. सुन्दरं रुचिरं चारु सुषमं साधु शोभनम्। कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञं मञ्जु मञ्जुलम्। अ. को., तृ का. 1/52
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy