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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य यह स्थिति ठीक ऐसी है जैसे हम यह नहीं बता सकते कि हमें मीठा खाना क्यों पसन्द है और तीखा हमें क्यों नहीं भाता।"
रस्किन सौन्दर्य को प्रकृतिगत मानते हैं और वह ईश्वरीय अभिव्यक्ति होने के कारण उदात्त है। वह सौन्दर्याभिरुचि परिष्कृत है, जो हमारी नैतिक वृत्ति के अनुकूल वस्तु की शुद्धता और पूर्णता में सर्वाधिक आनन्द प्रदान करती है।"
कालरिज : कालरिज सौन्दर्य भावना को अन्तःप्ररित या आन्तः प्रज्ञ मानता है जिसका कार्य है आनन्द प्रदान करना।* सौन्दर्यानन्द का रसास्वादन वहीं कर सकता है जिसकी वृत्तियाँ कोमल है, जो भावुक है तथा जो सौन्दर्य का पारखी है। कालरिज काल को प्रकृति की अनुकृति नहीं मानता। इसके अनुसार कलाकार प्रकृति के बाह्य रूपों का अनुकरण न कर प्रतीकों द्वारा प्रकृति की आत्मा का सम्प्रेषण करता है। कलाकार मूल वस्तु का अनुकरण तो करता है साथ ही वह अपनी ओर से भी कुछ न कुछ जोड़ता-घटाता है, अपने विचारों के रंग में उसे रंगता है, अपनी कल्पना की स्वर्णाभा से अलंकृत करता है। कलाकृति जीवन की प्रतिकृति नहीं होती, उसमें जीवन से कुछ बातें अधिक होती है, कुछ कम।" कल्पना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कालरिज ने कहा है कि कलाकार की महत्ता सृजन में है और यह कार्य कल्पना कर सकती है। कलाकार को चाहिए कि वह ऐसा रूप प्रस्तुत करे, जिससे प्रकृति की आत्मा का, उसके विशिष्ट व्यक्तित्व का, उसके सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण हो सके।
क्रोचे : आधुनिक सौन्दर्यशास्त्रियों में बेनेदेत्तो क्रोचे का प्रमुख स्थान है। क्रोचे ने अपने ग्रन्थ ईस्थेटिक में सौन्दर्य की विस्तारपूर्वक विवेचना की है। क्रोचे के अनुसार सौन्दर्य प्रकृतिगत न होकर कलाकार की सृष्टि है। मन के सहज ज्ञान की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति उसका कारण है। जो सहज ज्ञान की बिम्बात्मक अभिव्यञ्जना नहीं है वह केवल ऐन्द्रिय संवेदन या प्राकृतिक धारणा है। सहज ज्ञान का बिम्ब मानसिक है और कलाकार अपने माध्यम (कृति) में उसे प्रकट
32. सौन्दर्य तत्त्व ; दासगुप्त, पृ. 175 33. सौन्दर्य तत्त्व निरूपण ; डॉ. नरसिम्हाचारी, पृ. 29 34. पश्चात्य काव्यशास्त्र ; देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 130 35. पाश्चात्य काव्य शास्त्र के सिद्धान्त ; डॉ. शान्तिस्वरूपगुप्त, पृ. 144-146 36. वही; पृ. 152