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काव्य सौन्दर्य
काँट : काँट ने बामर्गाटन के मत का खण्डन किया है। उसके अनुसार वह वस्तु जो हमें केवल आनन्द प्रदान करती है, उसे हमें सुन्दर नहीं कहना चाहिए। सौन्दर्य का आदर्श केवल मानव के सम्बन्ध में लागू होता है। काँट का मत है कि सुन्दर वस्तु सार्वभौम आनन्द प्रदान करती है, तथापि सौन्दर्य का कोई सार्वभौम मापदण्ड नहीं हो सकता। सौन्दर्य संसार व्यवहारिक संसार से बिल्कुल भिन्न है। सौन्दर्य भावना की अभिव्यक्ति में होता है। काँट ने सौन्दर्य के स्थूल अस्तित्व का खण्डन किया है। उसके अनुसार वस्तु में सौन्दर्य नहीं होता, केवल द्रष्टा के मानस पटल पर उसका अस्तित्व होता है। सौन्दर्य के सम्बन्ध में निर्णय सदैव व्यक्तिगत होता है अतः सौन्दर्य के लिए निश्चित शर्ते देना असम्भव है।"
हीगल : जर्मन दार्शनिक हीगल ने 'इस्थेटिक' नामक अपने ग्रन्थ में सौन्दर्य की विवेचना करते हुए अपना सौन्दर्य दर्शन प्रस्तुत किया है। हीगल ने सौन्दर्य को मस्तिष्क या विचार का प्रत्यक्षीकरण माना है, जिसकी अनुभूति एन्द्रिय माध्यम से की जाती है। हीगल एस्थेटिक को ललित कलाओं का दर्शन कहते हैं। उसके अनुसार मस्तिष्क प्रकृति से श्रेष्ठतर है अतः कला का सौन्दर्य प्रकृति से श्रेष्ठतर है। सौन्दर्य की सर्वप्रथम अनुभूति विवेक से होती है और उसी की अनुभूति कला है। यह अनुभूति व्यक्ति की बौद्धिक शक्तियों पर निर्भर करती है। प्लेटो ने कलाओं को सत्य के अनुकरण प्रकृति का अनुकरण कहकर उसे निम्नतर माना है, परन्तु हीगल का मत है कि कला सत्य के अनुकरण का अनुकरण मात्र नहीं, अपितु प्रकृति से उच्चतर वस्तु है क्योंकि कला यथार्थ से उठकर आदर्श की
ओर चलती है। प्रत्येक महान् कलाकृति का प्रेरणा स्रोत प्रकृति होती है। किन्तु जितनी वह महान् होती है उतनी ही वह जड़ जगत् से ऊपर उठती जाती है। इस प्रकार हीगल का चिन्तन विषय मुख्यत: कला सौन्दर्य रहा है।"
रस्किन : जॉन रस्किन ने भी सौन्दर्य पर अपने मतों को प्रस्तुत किया है। रस्किन की गणना योरोप के महान् सौन्दर्यशास्त्रियों में की जाती है। रस्किन का विचार है कि जब कोई बाह्य पदार्थ विचार के अभाव में केवल अपने बाह्य गुणों की सहज कल्पना से आनन्द देता है, तब हम उसे सुन्दर कहने लगते हैं। हम यह नहीं बता सकते कि हम किसी वर्ण या रंग के समवाय में आनन्द क्यों मानते हैं।
30. 31.
सौन्दर्य ; राजेन्द्र बाजपेयी, पृ. 61-64 वही, पृ. 64-68