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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य केवल अंशतः प्रतिबिम्बित करते हैं। सौन्दर्य का दर्शन बाहरी नेत्रों से नहीं. आन्तरिक नेत्रों से सम्भव है। मानव मस्तिष्क सौन्दर्य के दर्शन तब तक नहीं कर सकता, जब तक वह स्वयं अपने आपको सुन्दर नहीं बना लेता।'
आगस्टीनः ईसाई दार्शनिक संत आगस्टीन कहते हैं Beauty is Unity और संसार तत्वतः सुन्दर है। सौन्दर्य के प्रति आगस्टीन का दृष्टिकोण भी पूर्णतः आध्यात्मिक था। उनके अनुसार जो व्यक्ति चक्षु इन्द्रिय के प्रतिबिम्ब के परे अन्य कुछ नहीं देखता, वह कुछ भी सृजनात्मक नहीं देख सकता। इसका तात्पर्य यह है कि जो चक्षु इन्द्रिय के प्रतिबिम्ब के अन्दर के स्वरूप को अर्थात् उसके प्राण तत्त्व को देखता है, वही सच्चे सौन्दर्य का दर्शन कर सकता है।
एक्वीनसः संत थामस एक्वीनस ने आनन्द को सुन्दर की कसौटी बनाकर अपनी सौन्दर्य विषयक मान्यता को एक विषयीपरक रंग दिया। सुन्दर वस्तु वही है जिसकी अवधारणा आनन्दपूर्वक की जाए। सुन्दरता का ज्ञान और उसमें आनन्द की अनुभूति विषय और विषयी के मध्य एक प्रकार के समागम से उत्पन्न होती है।” एक्वीनस का मत है कि देखने पर जो वस्तु आत्मा को आह्लादित कर दे, उसका दर्शन शुभ है और वह सुन्दर कहलाने योग्य है।" - बामगार्टन : सौन्दर्य आरम्भ से ही पाश्चात्य विद्वानों का विवेच्य विषय रहा है परन्तु सर्वप्रथम बामगार्टन ने एक स्वतन्त्र विषय के रूप में "सौन्दर्य" का अध्ययन किया। उसने 1750 ई. में 'इस्थेटिका' नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें उन्होंने सौन्दर्य के स्वरूप और उसके लक्ष्यों की विवेचना की है। बामगार्टन का मत है कि जब हम किसी वस्तु को देखकर उसके लालित्य से भावविभोर होकर उसे निरन्तर देखते रहते हैं, तो उससे जो आनन्द प्राप्त होता है, वही सौन्दर्यानुभूति है। बामगार्टन सौन्दर्य को इन्द्रियजन्य अनुभूति मानते हैं। सौन्दर्य दर्शन और उसका रसास्वादन पूर्णतः ऐन्द्रिय स्तर की वस्तु है। सौन्दर्य पर सर्वप्रथम सुव्यवस्थित रूप से विवेचन किए जाने के कारण उसे फादर आफ ऐस्थेटिक्स भी कहा जाता है।"
25. सौन्दर्य ; राजेन्द्र बाजपेयी, पृ. 34 26. वही, पृ. 39 27. रस सिद्धान्त और सौन्दर्य शास्त्र ; निर्मला जैन, पृ. 50 28. सौन्दर्य ; राजेन्द्र बाजपेयी, पृ. 41 29. वही, पृ. 59-60 .