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काव्य सौन्दर्य
काव्य लक्षण
काव्य की परिभाषा या लक्षण एक ऐसा विषय है जिस पर आचार्यों की पृथक-पृथक धारणाएँ रही है। जिस आचार्य ने काव्य में जिस तत्त्व को उत्कृष्ट माना, उसी के अनुसार काव्य का लक्षण किया है। इससे काव्यचिन्तकों में अत्यधिक वैमत्य दृष्टिगोचर होता है। कुछ आचार्य शब्द को, कुछ अर्थ को तथा कुछ दोनों की प्रधानता देते हैं। किसी आचार्य ने बाह्य तत्त्व, तो किसी ने आत्म तत्त्व के आधार पर काव्य का लक्षण किया है।
काव्यशास्त्र के आद्याचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में काव्य का लक्षण नहीं किया है परन्तु रूपक का वर्णन करते हुए उन्होनें काव्य के अंगों जैसे रस, गुण, अलङ्कार भाव आदि की विवेचना की है। काव्य परिभाषा पर सर्वप्रथम मत आचार्य भामह का प्राप्त होता है। इन्होंने शब्द और अर्थ दोनों के सहभाव को काव्य माना है।' सहितौ पद से शब्द और अर्थ के समान महत्त्व का प्रतिपादन ही अभीष्ट प्रतीत होता हैं। आचार्य भामह अलङ्कारवादी आचार्य है, अतः उन्होंने शब्दार्थ पर ध्यान दिया है। आचार्य दण्डी का मत है कि यदि शब्दरूपी ज्योति संसार को प्रकाशित न करे तो यह समस्त विश्व अंधकारमय हो जाए।' शब्द की महिमा का प्रतिपादन करने के पश्चात् वे काव्य का लक्षण करते हुए कहते हैं - इष्ट अर्थात् हृदयाह्लादक अर्थ से युक्त पदावली (पद समूह) काव्य का शरीर है।' इस लक्षण में उन्होंने इष्ट अर्थात् चमत्कारपूर्ण अर्थ से युक्त पद समूह को काव्य कहा है।
भामह तथा दण्डी के पश्चात् आचार्य वामन ने काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया है। भामह और दण्डी ने काव्य लक्षण में काव्य शरीर की विवेचना की हैं। आचार्य वामन ने कुछ आगे बढ़कर उस काव्य शरीर में आत्मा की गवेषणा की है। उनके अनुसार रीति काव्य की आत्मा है। काव्य अलङ्कार के कारण ही ग्राह्य होता है। वे गुण व अलङ्कार से युक्त शब्दार्थ को काव्य मानते हैं। आचार्य रुद्रट ने भी 4. शब्दार्थों सहितौ काव्यम्। का. ल., 1/16 5. इदमन्धतमः, कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारान्न दीप्यते।। का. द., 1/4 शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली। वही, 1/10
रीतिरात्मा काव्यस्य। का. सू. वृ., 1/2/6 8. काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात् - वही, 1/1/2 9. काव्यशब्दोऽयं गुणलङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोवर्तते। का. सू. वृ., 1/1/1
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