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काव्य
वाणी अथवा भाषा भावाभिव्यक्ति का श्रेष्ठ व सशक्त माध्यम है। इस जगत् के समस्त प्राणी अपनी इच्छाओं, विचारों व भावों को भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यक्त करते हैं- कोई गाकर, कोई गरज कर तथा कोई चहक कर । परन्तु ब्रह्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य अनेक प्रकार से अपने भावों व विचारों को प्रकट करता है जैसे चित्र बनाकर, गाकर अथवा बोलकर । जिस प्रकार पक्षी चहचहा कर अपना विचार प्रकट करते है, परन्तु कोयल की चहचहाहट (कूक) कर्णप्रिय व आनन्द प्रदान करने वाली होती है उसी प्रकार मनुष्य की सरस व मीठी वाणी आनन्ददायक व सहृदय - हृदय श्लाध्य होती है । कवि अपने विचारों व भावों को चमत्कारपूर्ण वाक्यों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है जिसमें सामान्य वाक्य की अपेक्षा आनन्दतत्त्व का अधिक समावेश होता है। कवियों में भी वे कवि विरले ही होते हैं जिनके काव्य में उस अर्थ को प्रकट करने की शक्ति होती है । प्रतिभावान् कवियों के समक्ष उस रमणीय अर्थ को प्रकट करने वाले शब्द अपने आप ही नृत्य करते हुए आ खड़े होते हैं।
तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
कवि प्रकृति के नियमों से स्वच्छन्द होता है। वह अपनी प्रतिभा (शक्ति) से किसी भी नवीन अर्थ को प्रतिपादित करने के लिए किसी भी नवीन शब्द का आश्रय ले सकता है तथा किसी अभिनव प्रयोग को नवीन भाव का प्रतीक बना सकता है। शक्ति सम्पन्न कवि व उसके काव्य को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं होती। उसके अमृत तुल्य रसास्वादयुक्त काव्य की प्रसिद्धि कस्तूरी के समान स्वयं ही जगत् में प्रसारित हो जाती है। काव्य सौन्दर्य की सृष्टि है तथा कवि सौन्दर्य का द्रष्टा व स्रष्टा है । कवि की काव्य रूपी सृष्टि ब्रह्मा की सृष्टि से भी उत्कृष्ट है क्योंकि नौ रसों से युक्त होने के कारण वह मनोरम तथा केवल आनन्ददायक है।' शृङ्गार परक काव्य में तो रसानन्द प्राप्त होता ही है, करुण रस परकं काव्य में भी सुखास्वादन ही होता है।
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कवित्वं दुलर्भं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा । अ. पु., 337/4 संसारविषवृक्षस्य द्वे एव मधुरे फले ।
काव्यामृतरसास्वादः संगमः सज्जनैः सह ।। वृ. सू. को, पृ. 910
नियतिकृतनियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति । का. प्र., 1/1