SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य 217 समस्तमन्त्रग्रामणीरसाधारणगुणाधारपुरुषसाध्यो मन्त्रनिवहः। तदाराधनेन लब्धाधिकपराक्रमः क्रमार्जितं सत्त्वमिवात्मपोतस्य मृगपतिर्वितर मे राज्यम्। पृ. 398 प्रबन्ध-वक्रता प्रबन्ध वक्रता वक्रोति का अन्तिम भेद है। कथा के प्रबन्धन व उपनिबन्धन में वक्रता ही प्रबन्ध वक्रता है। प्रबन्ध-वक्रता से अभिप्राय सम्पूर्ण काव्य के सौन्दर्य व वैचित्र्य से है। प्रबन्ध-वक्रता का आश्रय काव्य का एकांश या एकदेश न होकर सम्पूर्ण काव्य होता है। आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार - "प्रबन्ध-वक्रोक्ति काव्य की सबसे अधिक व्यापक वक्रोक्ति है। इसका आश्रय न अक्षर है, न पद, न वाक्य और न वाक्यार्थ प्रत्युत् आदि से अन्त तक संवलित समग्र काव्य तथा नाटक ही इस वक्रोक्ति की आधार स्थल है।" कुन्तक ने वक्रोक्ति के छः भेद किये हैं - 1. प्रबन्ध रस परिवर्तन-वक्रता 2. कथा समापन-वक्रता 3. कथा विच्छेद-वक्रता 4. आनुषङ्गिक फल प्राप्ति-वक्रता 5. प्रधान कथा का द्योतक नाम 6. कथा साम्य-वक्रता प्रबन्ध रस परिवर्तन वक्रता : कुन्तक काव्य में रस के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं - कवियों की वाणी केवल कथा पर आश्रित होकर नहीं, अपितु निरन्तर रस का आस्वादन कराने वाले प्रसङ्गों के अतिशय से युक्त होकर जीवित रहती है।” कवि अपनी प्रतिभा से प्रसिद्ध कथा के रस में परिवर्तन कर उसे रमणीय बना देता है। इसे ही रस परिवर्तन वक्रता कहते हैं। आचार्य कुन्तक के अनुसार – "विनेयों के लिये आनन्द की सृष्टि हेतु जहाँ इतिहास में अन्य प्रकार से किए गये निर्वाह वाली रस सम्पत्ति का तिरस्कार, प्रारम्भ से ही उन्मीलित किए गये सौन्दर्य वाले काव्य शरीर का दूसरे मनोहर रस के द्वारा निर्वाह किया गया है। 93. निरन्तररसोद्गारगर्भसन्दर्भनिर्भरा। गिरः कवीनां जीवन्ति न कथामात्रमाश्रिता।। व. जी., पृ. 417
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy