________________
216
तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति गया है, जो सहृदय को विप्रलम्भ शृङ्गार रसास्वादन में निमग्न कर देता है -
प्रवर्तितप्रबलधारापङ्कतयो भक्तमिव तस्य धारानगृहस्पदा क्षिप्रमेवान्तरिक्षमाच्छादयांचा। अङ्गिनीपलासप्रकरनीलाः पयोमुचः सततयामिनीजागरणजड़ तारका प्रसादयितु मिव तद्दृष्टिमविरलो - द्भिन्नमरकतश्यामशाद्वला बभूव भूतधात्री। प्रथमजलधारासारशिशिरास्तदङ्गतापमिव निर्वापयितु निर्वातुमारभन्तसंततामोदमकरन्दमांसलाः कदम्बमरुतः। मानसस्मरणसंजातरणरणकास्तदनुरागमाख्यातुमिव खेचरेन्द्र दुहितुरुत्तरां दिशमभिप्रतस्थिरे राजहंसा।...वनोदयितुमिव तस्यारतिमनारतोदीरितमधुरकेकागीतिभिः समारम्भि ताण्डवमुद्दण्डबर्हमण्डलैर्गृहशिखण्डिभिः। एवं च विकसिताकुण्ठकलकण्ठचातक कलकले...समन्ताद्विजृम्भिते म्बुधरदुर्दिने विधुरीभूतमनसः। पृ. 179-80
अवान्तर वस्तु-योजना : प्रधान वस्तु की सिद्धि के लिए जहाँ अन्य अर्थात् प्रासङ्गिक वस्तु की उल्लेखपूर्ण विचित्रता उन्मीलित होती है, वह प्रकरण वक्रता का अन्य उदाहरण है।" तात्पर्य यह है कि जहाँ प्रधान फल की प्राप्ति के लिए, नवीन उन्मेष की भङ्गिमा से रमणीय प्रासङ्गिक वस्तु की योजना की जाती है वहाँ अवान्तर वस्तु-योजना प्रकरण वक्रता होती है।
तिलकमञ्जरी में अनङ्गरति प्रकरण इसका अतिसुन्दर उदाहरण है। विद्याधर सम्राट विक्रमबाहु के अकस्मात् वैरागी हो जाने पर शाक्यबुद्धि आदि मन्त्रिगण हरिवाहन को सम्राट् पद के सर्वथा योग्य पाते है। उधर हरिवाहन तिलकमञ्जरी के वियोग में जीवित नहीं रहना चाहता। इससे शाक्यबुद्धि आदि योजना बनाकर अनङ्गरति के माध्यम से हरिवाहन को मंत्र साधना में प्रवृत्त करते हैं, जिससे वह सिद्धि प्राप्त कर विधाधरों का चक्रवर्ती सम्राट् बन सके। हरिवाहन मंत्र सिद्ध कर विद्याधर सम्राट बना जाता है तथा उसे मुख्य फल अर्थात् विद्याधर राजकुमारी तिलकमञ्जरी भी प्राप्त हो जाती है।
अस्ति मे गुरुपरम्परागतः सकलजगदाधिपत्यदायी प्रधानदेवतापरिगृहितः
92. प्रधानवस्तु निष्पत्यै वस्त्वन्तरविचित्रता।
यत्रोल्लसति सोल्लेखा सापराप्यस्य वक्रता।। व. जी., 4/11