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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
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की वीरता के विषय में जानकर मेघवाहन ही नहीं, उसके सभी सभासद भी आश्चर्यचकित हो जाते है तथा उनके मन में समरकेतु के लिए सम्मान के भाव आ जाते हैं। मेघवाहन उसे देखने के लिए उत्सुक हो जाते हैं.
अव्याजशौर्यावर्जितश्च न तथा लब्धविजयेषु सुहृदिव वज्रायुधे यथा समरकैतो बबन्ध पक्षपातम्। तथाह्यस्य चिन्तयन्नचिन्तितात्मपरसैन्यगुरुलाघवां मनस्विताम्, विभावयन्नेकरथेन कृतमहारथसमूहेषु मध्यप्रवेशां साहसिकताम् । अनुरागतरलिश्च तत्रैव गत्वा तं द्रष्टुमिव परिष्वक्तुमिवं संभाषयितुमिवाभ्यर्चितुभिव स्वपदेऽभिषेकतुमिव चेतसाभिलषितवान् । पृ. 99-100
वह प्रकरण भी अत्यधिक भावपूर्ण व चमत्कारपूर्ण बन गया है जब देवी लक्ष्मी मेघवाहन को दर्शन देकर उसे, वर मांगने के लिए कहती है । तब मेघवाहन कहता है कि आपके दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया हूँ। आप मुझे केवल इतनी शक्ति दीजिये, जिससे मैं आधे कटे हुए अपने शीश को काटकर, इस वेताल को देकर निर्वाण प्राप्त कर सकूँ -
पार्थिवः शनैरलपत्
देवि, मेऽभिमतममुष्य महात्मनस्त्वत्परिग्रहाग्रेसरस्य नक्तंचरपतेः प्रयोजनवशादुपदर्शितार्थिभावस्य दातुमुत्तमाङ्गं मया परिकल्पितम् । अर्धकल्पिते चास्मिन्नकस्मादपगतपरिस्पन्दौ संदानिताविव केनाप्यकिंचित्करौ करौ संवृत्तौ । तदनयोर्यथा स्वसामर्थ्यलाभो भवति भूयस्तथा प्रसीद, येनाहमनृणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छामि। पृ. 55-56
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उपकार्योपकारकभाव वक्रता : आचार्य कुन्तक के अनुसार " प्रतिभासम्पन्न कवि की लोकोत्तर वर्णन करने वाली शक्ति से देदीप्यमान प्रबन्ध के प्रकरणों के मुख्य कार्य का अनुकरण करने वाला उपकार्य एवं उपकारक भाव का माहात्म्य समुल्लसित होता हुआ अभिनव वक्रता के रहस्य को उत्पन्न करता है ।" इसका अर्थ यह है कि जहाँ कवि अपनी अलौकिक प्रतिभा से फलबन्ध अर्थात् मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक प्रकरणों के उपकार्योपकारक भाव को प्रस्तुत करता
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प्रबन्धस्यैकदेशानां फलबन्धानुबन्धवान्। उपकार्योपकर्तृत्वपरिस्पन्दः परिस्फुरन् ।। असामान्य समुल्लेख प्रतिभाप्रतिभासिनः ।
सते नूतनवक्रत्व रहस्यं कस्यचित्कवेः । । व. जी., 4/5, 6