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________________ 202 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति वेताल रूपधारी यक्ष मेघवाहन को कहता है कि देवी के सर्वदा समीप रहने वाले मुझको प्रसन्न करने पर ही, मेरे माध्यम से देवी प्रसन्न होकर आप पर कृपा करेंगी। इस पर मेघवाहन कुछ उपहासपूर्वक कहते हैं - आपने हमें सावधान कर दिया। यह हमारा अविवेक ही है, जो हम सर्वगुणसम्पदा से युक्त आपको छोड़कर देवी की उपासना कर रहे हैं। परन्तु इसमें हमारा लेशमात्र भी दोष नहीं है क्योंकि हमने जन्म से ही किसी अन्य की आराधना नहीं की है। ___ यहाँ 'अहम्' के स्थान पर 'वयम्', 'मया' के स्थान पर 'अस्माभिः', तथा 'मम' के स्थान पर 'अस्माकम्' का प्रयोग किया गया है, जिससे वर्णन में विचित्रता आ गई है। एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होने से यहाँ संख्यावक्रता है। नरेन्द्र, न वयं पक्षिणः, न पशवः, न मनुष्याः। कथं फलानि मूलान्यन्नं चाहरामः। क्षपाचराः खलु वयम्। पृ. 50-51 सम्राट मेघवाहन वेताल को फल, मोदकादि ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करते हैं। इस वेताल कहता है - हे राजन्! न हम पक्षी है, न पशु और न ही मनुष्य। फल, मूल और अन्न को कैसे खायेंगे। हम तो राक्षस हैं। धनपान ने यहाँ यक्ष के लिए एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग किया है, जिससे सामाजिक को किञ्चिद् भय की प्रतीति होती है। अतः यहाँ संख्या-वक्रता का चारुत्व स्पष्ट है। पुरुष-वक्रता : जहाँ वैचित्र्य की सृष्टि करने के लिए अपने स्वरूप और दूसरे के स्वरूप को परिवर्तन के साथ निबद्ध किया जाता है। वहाँ पुरुषवक्रता होती है।" इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ अन्य, मध्यम अथवा उत्तम पुरुष के स्थान पर विचित्रता की निष्पत्ति के लिए अन्य पुरुष अर्थात् प्रथम पुरुष का प्रयोग किया जाता है और इसलिए किसी पुरुष के ले आने व सुरक्षित रखने के कारण अस्मदादि तथा केवल प्रातिपदिक का विरोध समाप्त हो जाता है। 71. प्रत्यक्तापरभावश्च विपर्यासेन योज्यते। यत्र विच्छित्तये सैषा ज्ञेया पुरुषवक्रता।। व. जी., 2/30 यदन्यस्मिन्नुत्तमे मध्यमे वा पुरुषे प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यायान्यः कदाचित् प्रथमः प्रयुज्यते। तस्माच्च पुरुषैकयोगक्षेमत्वादस्मदादेः प्रातिपदिकमात्रस्य च विपर्यासः पर्यवस्यति। - वही, 2/30 की वृत्ति
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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