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________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य 201 काव्यं तदपि किं वाच्यवाञ्चि न करोति यत्। श्रुतमात्रममित्राणां वक्त्राणि च शिरांसि च॥" जो काव्य श्रवणमात्र से ही प्रतिस्पर्धियों के मुखों व सिरों को नहीं झुका देता, वह भी क्या काव्य है? कवि अपने रचना कौशल से ऐसे उत्तम काव्य की रचना करता है, जिससे उसके आलोचक वाक्रहित हो जाते है और उनके मस्तक झुक जाते हैं। काव्य कवि का कर्म है। यहां साधन अर्थात् कारण रूप काव्य का कर्ता रूप में प्रयोग विचित्रता का आधान कर रहा है। यस्य फेनवत्स्फुटप्रसृतयशोट्टहासभरितकुक्षिरङ्गीकृत गजेन्द्रकृतिभीषणः प्रकटितानेकनरकपालः प्रलयकालविभ्रमेष्वाजिमूर्धसु संजाह विश्वानि शास्त्रवाणि महाभैरवः कृपाण:। पृ. 14 जिस राजा मेघवाहन की अत्यधिक भयङ्कर खड़-प्रलयकाल के समान युद्धारम्भ में सभी शत्रुओं का विनाश करती थी। यहां करण कारक खड़ का कर्ता रूप में वर्णन किया गया है। इससे अपूर्व चमत्कार की निष्पत्ति हो रही है तथा भयानक रस की सुष्ठु अभिव्यञ्जना हो रही है। सङ्ख्या (वचन) - वक्रता : जिस वक्रता में कविजन काव्य में वैचित्र्य उत्पन्न करने के लिए परतन्त्र होकर वचन का विपर्यास करते हैं, वह संख्या (वचन) वक्रता कहलाती है।” तात्पर्य यह है कि जहाँ विचित्रता के प्रतिपादन के लिए एकवचन या द्विवचन के स्थान पर बहुवचन अथवा बहुवचनादि के स्थान पर एकवचनादि का प्रयोग हो,अथवा जहाँ भिन्न-भिन्न वचनों का समान अधिकरण से युक्त प्रयोग किया जाता है वहाँ सङ्ख्या वक्रता होती है। प्रबोधिता वयम्। अप्रतिविधेया वैधेयतेयम्, यदस्माभिः सर्वसेव्यगुणसंपदुपेतं भवन्तमदहाय ... देवता सेवितुमुपक्रान्ता। जन्मनः प्रभृत्यकृतपरसेवानामत्र लवमात्रोऽपि नास्माकं दोषः। पृ. 50 68. ति.म., पद्य 12 69. कुर्वन्ति काव्यवैचित्र्यविवक्षापरतन्त्रिता:। यत्र संख्याविपर्यासं तां संख्यावक्रतां विदुः।। व. जी., 2/29 70. यदेकवचने द्विवचने प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यार्थं वचनान्तरं यत्र प्रयुज्यते, भिन्नवचनयोर्वा यत्र समानाधिकरण्यं विधीयते। वही 2/29 की वृत्ति, पृ. 260
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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