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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
नरेन्द्र! सर्वदा शरीरसंनिहितैः प्रधानपुरुषैरिव प्रस्तावावेदिभिरपृष्टैरपि निवेदितोऽसि चक्रवर्तिलक्षणैः, स खलु भवान् मध्यमलोकपालो राजा मेघवाहन। - पृ. 39
मेघवाहन को देखकर दिव्य वैमानिक कहता है - "हे राजन्! चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त वह मध्यमलोकपाल राजा मेघवाहन आप ही लगते हो।" यहाँ मेघवाहन के लिए 'त्वम्' अर्थात् मध्यम पुरुष के स्थान पर अन्य पुरुष वाचक 'स', 'भवान्' का प्रयोग किया गया है, जिससे मेघवाहन में विशिष्टता का बोध होता है तथा वाक्यार्थ में चारुत्व का आधान होता है। अतः यहाँ पुरुषवक्रता है।
स्नपनवस्त्रमाल्यानुलेपनालङ्कारादिभिः सततमेनां देवतामुपचरसि। यस्तु प्रणयपात्रमस्याः सर्वदा सविधवर्ती कार्यकर्ता जनोऽयं सर्वपरिजनप्रागहस्तमहा रमात्रदानमात्रयापि नामन्त्रसे। पृ. 49 __ वेताल राजा से कह रहा है - तुम स्नान, वस्त्र, माला, लेपन, अलङ्कारों आदि से इस देवी की पूजा कर रहे हो, परन्तु इस देवी के सदा पास रहने वाले तथा समस्त परिजनों में मुख्य इस जन को आहारादि ग्रहण करने के लिए भी आमंत्रित नहीं करते। __ यहाँ अस्मद्' के स्थान प्रथम पुरुष वाचक के प्रयोग से वेताल के कथन में अर्थ वैचित्र्य का समावेश हो गया है। 'जनोऽयम्' कहने से यह व्यंग्य निकलता है कि राजा मेघवाहन ऐसे व्यक्ति (वेताल) के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है, जो उसके कार्य-सिद्धि में सर्वथा सहायक सिद्ध हो सकता है।
न मे प्रयोजनं दिव्यजनोचितैरुपभोगैः। अथ येनकेनचित्प्रकारेणानुग्राह्योऽयं जनो ग्राहयितव्यश्च कमप्ययिप्रेतमर्थम्। पृ. 58
देवी लक्ष्मी के वर मांगने के लिए कहने पर राजा मेघवाहन कहता है - दिव्यजनों के योग्य सुखोपभोगों से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। अब यदि किसी भी प्रकार से यह जन आपके अनुग्रह के योग्य है, तो मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान कीजिये।
'अयं जनः' कहने से मेघवाहन का स्वयं के प्रति तुच्छता का भाव प्रकट होता हैं। परन्तु जो व्यक्ति देवी लक्ष्मी के अनुग्रह का पात्र है, वह तुच्छ कैसे हो सकता है। अत: 'अयं जनः' यहाँ पर राजा मेघवाहन की विशिष्टता को व्यञ्जित