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तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति यहाँ अमूर्त रात्रि पर मूर्तता का तथा अचेतन वृक्षों पर चेतनता का आरोप चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। शाखा और हाथों में अभेद का वर्णन होने पर यहाँ रूपक अलङ्कार है। यहाँ उपचार वक्रता के मूल में होने से रूपक अलङ्कार रमणीय
और चमत्कार युक्त हो गया है। पदपरार्धवक्रता पद के उत्तरार्ध के वैचित्र्य पर आश्रित वक्रता पदपरार्धवक्रता कहलाती है। पद के परार्ध से अभिप्राय सुप् तथा तिङ् प्रत्ययों से हैं। इसलिए पदपरार्धवक्रता को प्रत्यय वक्रता भी कहा जाता है। आचार्य कुन्तक ने पदपरार्धवक्रता के आठ भेद किये हैं 1.कालवैचित्र्य-वक्रता
2. कारक वक्रता 3. सङ्ख्या (वचन) वक्रता 4. पुरुष वक्रता 5. उपग्रह वक्रता
6. प्रत्यय वक्रता 7. उपसर्ग वक्रता
8. निपात वक्रता कालवैचित्र्यवक्रता : जहाँ औचित्य का अत्यन्त अन्तरङ्ग होने के कारण समय रमणीयता को प्राप्त कर लेता है, वहां कालवैचित्र्यवक्रता होती है। जब कवि अपने काव्य-कौशल से काल अथवा समय का चमत्कारी प्रयोग करता है, वहाँ कालवैचित्र्यवक्रता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि कवि की वह प्रतिभा जो अतीत और भविष्य को, वर्तमान में हो रहे क्रिया-व्यापारों की भांति स्पष्टतः सम्मुख रख दे, कालवैचित्र्यवक्रता को जन्म देती है। कवि अपनी कल्पना-शक्ति के द्वारा वर्णन में ऐसी रमणीयता उत्पन्न कर सकता है कि हजारों वर्ष पूर्व हुई घटना या भविष्य में होने जा रही घटनाएं आंखों के सम्मुख होती हुई प्रतीत हों।'
महाकवि धनपाल ने तिलकमञ्जरी के वर्णनों को चमत्कारी व प्रभावशाली बनाने के लिए कालवैचित्र्यवक्रता का बहुधा प्रयोग किया है
61. औचित्यान्तरतम्येन समयो रमणीयताम्।
___ याति यत्र भवत्येषा कालवैचित्र्यवक्रता।। व. जी., 2/26 62. वक्रोक्ति सिद्धान्त और हिन्दी कविता, पृ. 213