________________
तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
उत्पतन्त्यजवद्व्योम्नि केचित्प्राप्तपदत्रयाः । विशन्त्यन्ये प्रबन्धेऽपि लब्धे बलिरिव क्षितिम्।।"
प्रस्तुत श्लोक में धनपाल ने क्षुद्र कवियों की उच्छृङ्खलता का उपहास करते हुए, गंभीर कवियों की अतिनम्रता की प्रशंसा की है - कुछ कवि अल्पश्रुत होने पर भी, स्वयं को महाकवि मानकर विष्णु के समान आकाश में उड़ते हैं। अन्य कवि सम्पूर्ण शास्त्र में निपुणता के कारण प्रतिष्ठित होने पर भी बलि के समान अतिनम्र रहते हैं।
यहाँ विष्णु तथा बलि के वर्णन से सहृदय को हजारों वर्ष पूर्व हुई वह घटना, अपने सामने होते हुए प्रतीत होती है, जिसमें वामनावतार में विष्णु ने तीन पदों में पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग को मापकर बलि को पाताल में भेज दिया। इस प्रकार भूत व वर्तमान के सम्बन्ध से वर्ण्य विषय में अपूर्व चमत्कार का समावेश हो गया
है।
199
दृष्ट्वा वैरस्य वैरस्यमुज्झितास्त्रो रिपुव्रजः । यस्मिन्विश्वस्य विश्वस्य कुलस्य कुशलं व्यधात्॥"
इस पद्य में सम्राट मेघवाहन के शौर्य का वर्णन किया गया है - ( पूर्ववर्ती शत्रुओं के नाश रूप) शत्रुता के दुष्परिणाम को देखकर और जिसमें (मेघवाहन में) विश्वास करके (अपने व कुल के भविष्य की रक्षा के लिए मेघवाहन के ) शत्रुसमुह ने अपने समग्र कुल के कल्याण को निश्चित कर लिया।
यहाँ कवि ने अपने वर्णन - कौशल से भूत और भविष्य का वर्तमान से सम्बन्ध स्थापित कर अद्भुत वैचित्र्य को उत्पन्न कर दिया है, जिससे सम्राट् मेघवाहन की वीरता पूर्णत: व्यञ्जित हो रही है।
63.
64.
अनेनैव निखिलजनमानसावासदुर्ललितस्य मकरकेतोरिवास्य त्वत्प्रसादवगतेन पुनरुज्जीवनेन रतिरिव कृतार्थाहमुपजाता। पृ. 347
आपसे समरकेतु की कुशलता के विषय में जानकर मुझमें उसी प्रकार से नव जीवन का संचार हो गया है, जिस प्रकार रतिकृत प्रार्थना से द्रवित होकर शिवजी
ति. म., पद्य 13
वही, पृ. 16