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प्रथमजलधरासारशिशिरास्तदङ्गतापमिव
तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति
निर्वापयितुं निर्वातुमारभन्त
संततामोदमकरन्दमांसला:
कदम्बमरुतः।
कास्तदनुरागमाख्यातुमिव खेचरेन्द्रदुहितुरुत्तरां दिशमभिप्रतस्थिरे राजहंसाः । घनधाराभिवृष्टमूर्तयस्तदार्तिदर्शनदुःखिता। इव दूरविनतैः पल्लवेक्षणैरम्बुकणिकाश्रुविसरमजस्रमसृजन्नुपवद्रुमाः । प्रकृतिकर्कशास्तदङ्गस्पर्शयोग्यानिव कुर्तुमात्मनः करानन्तः सलिलेषु जलमुचां कुक्षिषु निचिक्षेप चण्डभानुः । तस्मिन्नसकृदुत्सृष्टवाणविसरं निवारचितुमिव मकरकेतुमाबद्धकुसुमाञ्जलिपुटान्यजायन्त
केतकीकाननानि । पृ. 179-80
मानसस्मरणसञ्जातरणरण
प्रथम वर्षा के जल से शीतल, चारों और फैली हुई सुगन्ध व पुष्परस से युक्त सुगन्धित पवन हरिवाहन के शरीरताप को शान्त करने के लिए बहने लगी। मानस नामक सरोवर जाने के उत्सुक राजहंस मानो हरिवाहन के अनुराग को तिलकमञ्जरी से कहने के लिए उत्तर दिशा की ओर चले गये । निरन्तर जलधारा से अभिषिक्त शरीर वाले उपवन के वृक्ष हरिवाहन की कामव्यथा से दुःखी हुए से, दूर तक अवनत पल्लव रूपी नेत्रों से अश्रुओं को निरन्तर छोड़ रहे थे। सूर्य ने स्वभाव से कठोर अपनी किरणों को मानो उसके स्पर्श योग्य बनाने के लिए मेघों के जल को अपने उदर में निवेशित कर लिया। केतकी पुष्पवनों ने कामदेव को हरिवाहन पर अपने कामबाणों को छोड़ने से रोकने की प्रार्थना करने के लिए मानो अपने कर पुटों को पुष्पों से पूर्ण अञ्जलि बना लिया।
जब कवि सूक्ष्म भावों की अनुभूति से परिपूर्ण हो जाता है तो वह किसी न किसी प्रकार से, उन्हें मूर्त रूप देकर सहृदय को उन भावों के द्वारा रसास्वादन करवाता है। यहाँ महाकवि धनपाल ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए उपचार वक्रता से प्रकृति का मानवीकरण कर हरिवाहन के विरहताप का मनोहारी चित्रण किया है।
प्रस्तुत उदाहरण में महाकवि धनपाल ने अचेतन पृथ्वी का मानवीकरण कर उपचार वक्रता के द्वारा अद्भुत वैचित्र्य की सृष्टि की है
नाथ ! 'कस्यचित् काचिदस्ति गतिः, अहमेव निर्गतिका, कुरु यत् साम्प्रतं मदुचितम्' इति सखेदया सन्तानार्थमभ्यर्थितस्येव भुजलग्नया भुवा। - पृ. 21
हे स्वामि, अन्य सभी का कोई न कोई निर्वहण उपाय है, केवल मैं ही