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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
195 उपचारवक्रता : कुन्तक के अनुसार जहाँ किसी अतिशयपूर्ण व्यापार के भाव को प्रतिपादित करने के लिए अत्यधिक व्यवधानवाली वर्ण्यमान वस्तु में दूसरे पदार्थ से किञ्चिन्मात्र रूप में भी विद्यमान साधारण धर्म का आरोप किया जाता है, वहाँ उपचारवक्रता होती है।” उपचरणमुपचारः अर्थात् उपचरण ही उपचार है। उप अर्थात् गौण, चरण अर्थात् व्यवहार। यह उपचरण जहाँ प्रधान होता है, वहाँ उपचारवक्रता होती है। इसके मूल में होने के कारण रूपकादि अलङ्कार चमत्कार युक्त हो जाते हैं।
उपचार की परिभाषा करते हुए साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ कहते हैं - अत्यन्त भिन्न पदार्थों में, अत्यधिक सादृश्य के कारण उत्पन्न होने वाली अभेद की प्रतीति ही उपचार कहलाती है।” कुन्तक ने उपचार वक्रता के लक्षण में दूरान्तर पद का प्रयोग किया है। दूरान्तर से तात्पर्य देशकाल के अन्तर से नहीं, वरन् मूल स्वभाव के अन्तर से है। जैसे मूर्तता व अमूर्तता, द्रवत्व व धनत्व तथा चेतनता व अचेतनता। ये परस्पर विरोधी धर्म वाले पदार्थ हैं। जब इन परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थो में सादृश्य का कथन कर चमत्कार की सृष्टि की जाती है, वहाँ उपचारवक्रता होती है। प्रत्येक साम्य या सादृश्य उपचार वक्रता नहीं कहलाती, जिस सादृश्यता में आह्लाद व चमत्कार उत्पन्न करने की क्षमता हो वही उपचार वक्रता कहलाने के योग्य होती है। तिलकमञ्जरी में उपचार वक्रता के चमत्कार से युक्त अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।
गन्धर्वक के वापस न आने पर हरिवाहन की तिलकमञ्जरी से मिलने की आशा दिन-प्रतिदिन क्षीण होने लगती है और वह विरहानल में तपने लगता है। महाकवि धनपाल ने वर्षा ऋतु के वर्णन में हरिवाहन की अमूर्त विरहाग्नि को मूर्त प्रकृति के द्वारा अभिव्यञ्जित किया है। यह उपचार वक्रता का अति सुन्दर उदाहरण है -
57. यत्र दूरान्तरेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते।
लेशेनापि भवत्काञ्चिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम्।। व. जी., 2/13 58. यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरकृतिः। वही, 2/14 59. उपचारो हि नामत्यन्तं विशकलितयोः पदार्थयो: सादृश्यातिशयमहिम्ना
भेदप्रतीतिस्थगनमात्रम्। सा. द., पृ. 37