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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
आढ्यश्रोणि दरिद्रमध्यसरणि प्रस्तांसमुच्चस्तनं
नीरन्ध्रालकमच्छगण्डफलकं छेकभ्र मुग्धेक्षणम्। शालीनस्मितमस्मिताञ्चितपदन्यासं बिभर्ति स्म या
स्वादिष्टोक्तिनिषेकमेकविकसल्लावण्यपुण्यं वपुः।।" इस पद्य में मदिरावती के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है इसके तृतीय चरण में 'स्मितमस्मित' में स्, म्, त् की दो बार आवृत्ति हुई है। विधिर्बद्धोऽपि बुद्धिमद्भिरतिनिबिडेन प्रज्ञालोहनिगडेन निरवग्रहो विचरति। पृ. 112
इस पंक्ति में भाग्य की महिमा का वर्णन किया गया है। यहाँ 'बद्धोऽपि बुद्धि' में ब्, द्, ध् की दो बार आवृत्ति हुई है।
क्षुण्णोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न विधुरेषु।' इस श्लोक में बताया गया है कि योग्य व्यक्ति स्वस्थान च्युत होने पर भी पुनः अपनी पूर्व महत्ता को प्राप्त कर लेता है। यहाँ 'सन्तः सन्तप्यन्ते' में स्, न्, त् की दो बार आवृत्ति हुई है।
अवतीर्णश्च तस्मिंस्तापमतापमातपमनातपं तपनमतपनं दिवसमदिवसं ग्रीष्ममग्रीष्म कालममकालं तुषारपातमतुषारपातं त्रिभुवनमत्रिभुवनं सर्गक्रमममस्त। पृ. 212
यहाँ आराम नामक उद्यान की रमणीयता का वर्णन किया गया है। यहाँ तापम्, तपनम्, आतपम्, दिवसम्, ग्रीष्मम्, कालम्, तुषारपातम्, त्रिभुवनम् में दो से अधिक वर्णो की उसी क्रम में एक साथ दो-दो बार आवृत्ति हुई है, जो विचित्रता का आधान करती है।
इस प्रकार वर्णविन्यासवक्रता का वैचित्र्य सहृदय को सहज ही आकर्षित करता है। आचार्य कुन्तक ने रीतियों और वृत्तियों का अन्तर्भाव वर्णविन्यासवक्रता में ही कर दिया है। आचार्य कुन्तक यमकालङ्कार को भी वर्णविन्यासवक्रता में
47. ति.म., पृ. 23 48. वही, पृ. 402 49. वर्णच्छायानुसारेण गुणमार्गानुवर्तिनी।
वृत्तिवैचित्र्ययुक्तेति सैव प्रोक्ता चिरन्तनैः।। व. जी., 2/5