________________
190
तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति
समाहित किये हुए है। उनका मत है कि यमक नियतस्थान पर शोभित होने के अतिरिक्त पूर्वोक्त वर्णविन्यासवक्रता से भिन्न किसी अन्य शोभा का जनक नहीं होता। ____ आचार्य मम्मट ने यमक की परिभाषा की है -अर्थ होने पर भिन्नार्थक वर्णो का उसी क्रम में पुनः श्रवण यमक है।" 'निरोद्ध, पार्यते केन .....' तथा 'अवतीर्णश्च तस्मिंस्तापमतापम् ....। इसके अत्युत्तम उदाहरण हैं। ___इस प्रकार तिलकमञ्जरी में वर्णविन्यासवक्रता का सहज, श्रुतिपेशल और
औचित्यपूर्ण प्रयोग सर्वत्र परिलक्षित होता है। धनपाल इस वैचित्र्य के संयोजन के प्रति प्रयत्नशील नहीं हैं। यह वक्रता वैचित्र्य उनकी सहज कवित्व शक्ति के समक्ष स्वयंमेव ही उपस्थित हो गया है। पदपूर्वार्धवक्रता काव्य की लघुतम इकाई वर्ण के पश्चात् दूसरा अवयव ‘पद' है। पद अनेक वर्णो से मिलकर बनता है और सार्थक होता है। पद के दो भाग होते हैं - पद पूर्वार्ध (प्रकृति) तथा पद परार्ध (प्रत्यय)। पद पूर्वार्ध पर आधारित वक्रता कुन्तक की वक्रोक्ति का द्वितीय भेद है। संस्कृत में पद दो प्रकार के होते हैं - सुबन्त और तिङन्त (सुप्तिङन्तं पदम्)। सुबन्त का पूर्वार्ध प्रातिपदिक तथा तिङन्त का पूर्वार्ध धातु कहलाता है। इस प्रकार पदपूर्वार्धवक्रता का अभिप्राय प्रातिपदिक और धातु की वक्रता से है। कुन्तक ने पदपूर्वार्ध वक्रता के दस मुख्य भेद किये हैं -
(क) रूढ़िवैचित्र्य-वक्रता (च) प्रत्यय-वक्रता (ख) पर्याय-वक्रता __ (छ) वृत्ति-वक्रता (ग) उपचार-वक्रता (ज) भाव-वक्रता (घ) विशेषण-वक्रता (झ) लिङ्गवैचित्र्य-वक्रता
(ङ) संवृत्ति-वक्रता (ञ) क्रियावैचित्र्य-वक्रता तिलकमञ्जरी में पदपूर्वार्धवक्रता का सुन्दर निदर्शन दृष्टिगोचर होता है।
50. यमकं नाम कोऽप्यस्याः प्रकार: परिदृश्यते।
स तु शोभान्तराभावादिह नाति प्रतन्यते।। वही, 2/7 51. अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुति यमकम्। का. प्र., सू. 116 52. ति.म., भूमिका, पद्य 29