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________________ 184 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति यहाँ पर 'प्रसन्न' में 'न' वर्ण की, 'यायावर' में 'य' वर्ण की, 'कवेर्वाचो में 'व' वर्ण की, 'मुनीनाम्' में 'न' वर्ण की तथा 'वृत्तय' में 'त', वर्ण की किसी अन्य व्यञ्जन के व्यवधान से रहित संयोजना हुई है। ससीमा सग्रामा सनगरसरिद्वीपवलया तमिस्रादुन्मज्जत्युदधिजलमध्यादिव मही।" यहाँ पर 'सनगरसरिद्वीपवलया' में 'द' वर्ण की, ससीमा में 'स' वर्ण की तथा उन्मज्जति' में 'ज' वर्ण की अन्य किसी व्यञ्जन के व्यवधान से रहित पुनः आवृत्ति हुई है। आचार्य कुन्तक वर्णविन्यासवक्रता के विषय में अत्यन्त सजग थे इसलिए उन्होंने वर्णविन्यासवक्रता के लिए कुछ नियम भी निर्धारित किए है जिनसे कवि अपने मूल उद्देश्य रस व्यञ्जना को विस्मृत कर वर्ण वक्रता के लिए प्रयत्नशील न हो जाए। ये नियम है - 1. वर्ण संयोजन वर्ण्य विषय के औचित्य (उचित भाव) से सुशोभित होने चाहिए। उसके औचित्य को दूषित करने वाले वर्णों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।" 2. वर्णविन्यासवक्रता के लिए कवि को अत्यन्त निर्बन्ध (व्यसन) नहीं होना चाहिए अर्थात् वर्णविन्यासवक्रता के लिए अत्यन्त आग्रह नहीं रखना चाहिए। यह वक्रता बिना प्रयास के स्वभावतः विरचित होनी चाहिए।" 3. वर्णविन्यासवक्रता अपेशल (कठोर) वर्णों से युक्त न होकर सुन्दर वर्णों से अलंकृत होनी चाहिए।" 28. ति. म., पृ. 359 29. प्रस्तुतं वर्ण्यमानं वस्तु तस्य यदौचित्यमुचितभावस्तेन शोभन्ते ये ते तथोक्ताः। न पुनर्वर्णसावर्ण्यव्यसनितामात्रेणोपनिबद्धाः प्रस्तुतौचित्यम्लानकारिणः। व.जी.,2/2 की वृत्ति, पृ. 175 30. नातिनिर्बन्धविहिता नाप्यपेशलभूषिता। वही, 2/4 31. वही, 2/4
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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