SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 183 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य (3) विपदिव विरता विभावरी नृप निरपायमुपास्स्व देवताः। उदयति भवनोदयाय ते कुलमिव मण्डलमुष्णदीधितेः।।" अपरवक्र छन्दोवद्ध प्रकृत पद्य सम्राट् मेघवाहन के लिए विशेष महत्त्व रखता है। इसमें चारण ने सहसा ही मेघवाहन को पुत्र प्राप्ति का उपाय बता दिया है, जिसे उसने तत्क्षण ही हृदयङ्गम भी कर लिया है। इस पद्य में 'व', 'प', 'द', 'र', 'य' तथा 'म' वर्गों की आवृत्ति विचित्रता को उत्पन्न कर रही है। (4) प्रथितगुणस्थानस्थितस्यासतोऽपि हि महात्म्यमाविर्भवति। पृ. 213 समरकेतु आराम नामक देवताओं के उद्यान की रमणीयता को देखकर कहता है कि प्रख्यात गुणों वाले स्थान पर स्थित महत्त्वशून्य वस्तु भी महिमावान् हो जाती है। यहाँ पर 'स', 'थ', 'त', 'ष', 'म' तथा 'व' वर्णो का विन्यास एकाधिक बार हुआ है। अत: यह वर्णविन्यासवक्रता के प्रथम भेद का उदाहरण है। (5) इन्दुरिव मोचयन्कुमुदमुकुलोदरसदानितान्यलिकदम्बकानि। पृ. 206-207 मानस नामक सरोराज में स्नान करके निकले समरकेतु की आभा उस चन्द्रमा के समान थी, जिसकी किरणों के स्पर्श से खिले हुए कुमुदों से भ्रमरसमूह मुक्त हो जाता है। यहाँ 'द', 'य', 'न', 'र', 'क', 'म', 'ल' आदि वर्णो का एकाधिक बार संयोजन उद्भुत छटा बिखेर रहा है। __ इस प्रकार स्वल्प व्यवधान से युक्त एक वर्ण की अनेकधा आवृत्ति के ये उदाहरण प्रस्तुत किए गए है। आचार्य कुन्तक का मत है कि कहीं-कहीं व्यञ्जनों के व्यवधान के अभाव में एक वर्ण का दो अथवा अनेक बार उपनिबंधन चित्ताकर्षक होता है। कहीं-कहीं वह स्वरों के असमान होने से किसी अन्य वैचित्र्य को पुष्ट करता है।" यथा-समाधिगुणशालिन्यः प्रसन्न परिपवित्रमाः। यायावरकवेर्वाचो मुनीनामिव वृत्तयः॥" 25. ति.म., पृ. 28 26. क्वचिदव्यवधानेऽपि मनोहारिनिबन्धना। सा स्वराणामसारुप्यात् परां पुष्णाति वक्रताम्।। व. जी., 2/3 27. ति. म., भूमिका श्लोक 33
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy