________________
182
तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति प्रथम प्रकार : एक वर्ण का पुनः पुनः विन्यास द्वितीय प्रकार : दो वर्णों का पुनः पुनः विन्यास
तृतीय प्रकार : दो से अधिक वर्णो का पुनः पुनः विन्यास प्रथम प्रकार : कुन्तक ने वर्णविन्यासवक्रता के प्रथम भेद 'एक वर्ण के पुनः पुनः विन्यास' का प्रकृत उदाहरण दिया है; जिसमें उन्होंने प्रथम प्रकार के वर्णविन्यासवक्रता को दर्शाया है।
महाकवि धनपाल की तिलकमञ्जरी में वर्णविन्यासवक्रता के सभी भेदों का सुन्दर परिपाक दृष्टिगोचर होता है। सहृदय तिलकमञ्जरी में अनेक स्थलों पर वर्णविन्यासवक्रता की छटा देखकर सहसा ही मुग्ध हो जाता है। तिलकमञ्जरी से वर्णविन्यासवक्रता के प्रथम भेद के उदाहरण द्रष्टव्य है : - (1) स वः पातु जिनः कृत्स्नं समीक्ष्यते यः प्रतिक्षणम्।
रूपैरनन्तैरेकैकजन्तोर्व्याप्तं जगत्रयम्।।' यह तिलकमञ्जरी का मंगलाचरण श्लोक है, जिसमें धनपाल ने अपने इष्टदेव जिन को नमस्कार किया है। इसमें 'प', 'त', 'र', 'क', और 'ज' आदि वर्णो की एकाधिक वार आवृत्ति अद्भुत छटा उत्पन्न करती है। (2) आश्लिष्य कण्ठममुना मुक्ताहरेण हदि निविष्टेन।
सरुषेव वारितो में त्वदुर:परिरम्भणारम्भः।।* यह आर्या छन्दोवद्ध पद्य है। इसे तिलकमञ्जरी ने हरिवाहन के पास पत्र में लिखकर भेजा है। यहाँ 'म', 'ह', 'र', 'भ', 'व' आदि वर्गों की अनेक बार आवृत्ति हुई है।
22. धाम्मिल्लो विनिवेशिताल्पकुसुमः सौन्दर्यधुर्य स्मितविन्यासो वचसां विदग्धमधुरः
कण्ठे कल: पञ्चमः। लीलामन्थरतारके च नयने यातं विलासालसं कोऽप्येवं हरिणीदृशःस्मरशरापातावदातः
क्रमः।। व. जी., पृ. 173 23. ति. म., भूमिका, पद्य 1 24. वही, पृ. 396