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________________ 172 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य महाकवि धनपाल ने तिलकमञ्जरी में व्रतौचित्य का सुन्दर सन्निवेश किया है। इसमें उपवास, यज्ञ, आराधना, नीतिपरायणता, प्रतिज्ञा, वचन आदि का सुन्दर परिपाक दृष्टिगोचर होता है। सम्राट् मेघवाहन के वर्णन में व्रतौचित्य का सुन्दर निदर्शन दृष्टिगोचर होता है। मेघवाहन पुत्र प्राप्ति हेतु देवराधन के लिए मुनि व्रत धारणकर वन में जाकर तप करने का संकल्प व्यक्त करते हैं। परन्तु विद्याधर मुनि के कहने पर वह घर में रहकर मुनिजनोचित आचरण को धारण कर नियम पूर्वक देवी की उपासना करते हैं। उनके इस तप के फलस्वरूप ही उन्हें हरिवाहन सदृश चक्रवर्ती लक्षणोपेत पुत्र की प्राप्ति होती है। यहाँ पर मुनिजनोचित व्रत को धारण करने तथा उसके फलस्वरूप पुत्र की प्राप्ति के वर्णन से व्रतौचित्य का आधीन होता है। ___ मलयसुन्दरी अपने प्रिय की प्रतीक्षा में मठायन में रहना स्वीकार करती है तो यह मुनिजनोचित क्रियाओं को भी अङ्गीकार करती है। प्रत्युषः यह अदृष्टपार नामक दिव्य सरोवर में स्नान करती है। देवता को अर्घाञ्जलि देती है तथा मन्त्रजप आदि करती है। मुनियों के समान वल्कल वस्त्र धारण करती है। हरिवाहन भी जब इससे पहली बार मिलता है तो उस समय यह जिनयातन में मंत्र जप कर रही होती है।'' तीर्थवन्दनार्थ आए हुए अतिथियों का यह कन्द मूलादि के द्वारा उनका सादर स्वागत करती है। हरिवाहन को देखकर यह उसका स्वागत करती है तथा अतिथि पूजा करती है। इस प्रकार यह जिस मुनिजनोचित व्रत को धारण करती है उस व्रत का नियमपूर्वक पालन भी करती है। अत: यहाँ व्रतौचित्य समरकेतु का हरिवाहन की खोज में एकाकी ही निकल जाना उसके हरिवाहन के सदा साथ रहने के व्रत को सुतरां अभिव्यक्त करता है। सम्राट मेघवाहन समरकेतु की वीरता और उसके गुणों में अनुरक्त होकर उसे हरिवाहन का परम विश्वसनीय सहचर बना देते हैं। समरकेतु भी उसी क्षण से हरिवाहन 109. ति. म., पृ. 26-35 110. अदृष्टपाराख्ये दिव्यसरसि प्रत्युषस्येव निर्वर्तितस्नाना वितीर्ण सन्ध्यादेवतार्घाञ्जलिरागत्य सिद्धायतनमेतत्स्वहस्तनिर्वतिताभिषेका ... । वही, पृ. 345 111. वही, पृ. 256 112. वत्स, एष समरकेतुर्गुणैः समधिकं समं चात्मबन्धुवर्गे प्रधानपुरुषमपश्यता मया तवैव सहचरः परिकल्पितः। ...एष ते भ्राता च भृत्यश्च सचिवश्च सहचरश्च । वही, पृ. 102-103
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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