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________________ तिलकमञ्जरी में औचित्य 171 की अनुभूति कराता है। अत: यहां पर स्वभावौचित्य है। शाक्य बुद्धि द्वारा उक्त यह वाक्य 'अयं हि प्राक्तनेनैव संस्कारेण परमसत्त्वोपकारी परमकारुणिकश्च न प्रार्थितो वचनमन्यथा करिष्यति। 105 हरिवाहन के नैसर्गिक स्वभाव को नितरां द्योतित कर रहा है। हरिवाहन पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण परम परोपकारी व परम दयालु है। वह कभी किसी याचना को निष्फल नहीं करता। शाक्यबुद्धि आदि मंत्री उसे विद्याधरों का चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहते हैं। इसके लिए उसे मन्त्र सिद्धि के लिए प्रवृत्त करवाना है। परन्तु हरिवाहन तिलकमञ्जरी के वियोग से दु:खी होकर प्राण-त्यागने जा रहा है। बिना तिलकमञ्जरी के सम्राट् पद भी उसके लिए व्यर्थ है, अत: वह इसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगा। परन्तु वह अत्यधिक दयालु व परोपकारी है। यदि कोई उसे अपने प्रयोजन के लिए मन्त्रसिद्धि करने की याचना करे, तो वह अवश्य ही उसके लिए प्रवृत्त हो जाएगा, क्योंकि परोपकार उसका स्वभाव है। हरिवाहन का ऐसा परोपकारी स्वभाव सहृदय हृदय को अपूर्व आनन्द प्रदान करता है। अतएव यहाँ स्वभावौचित्य है। व्रतौचित्य आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार सुन्दर व्रतौचित्य की प्रतिष्ठा के कारण काव्यार्थ जनमानस को अपने चमत्कार से पूर्णतः सन्तुष्ट कर देता हैं। क्योंकि वह सहृदयों को अपूर्व आनन्द प्रदान करता है। काव्य में पात्र, देश और काल आदि के अनुसार ही व्रताचरण का विधान किया जाना चाहिए।” इसका उदाहरण क्षेमेन्द्र ने अपनी रचना मुक्तावली से दिया है। इसमें तापसोचित्त वल्कलादि उपकरणों के द्वारा अचेतन वृक्षों में भी वैराग्यकालीन शान्तचित्त वृत्ति का समुचित वर्णन किया गया है। 105. ति.म., पृ. 402 106. काव्यार्थः साधुवादार्हः सव्रतौचित्यगौरवात् । सन्तोषनिर्भरं भक्त्या करोति जनमानसम् ।। औ. वि. च., का. 29 107. औचित्य की दृष्टि से भवभूति के नाटकों का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 71 108. अत्र वल्कलजुषः पलाशिनः पुष्परेणुभरमस्मभूषिताः। लोलमभृङ्गवलयक्षमालिकास्तापसा इव विभान्ति पादपाः ।। वही, पृ. 132
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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